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________________ टीकार्थ : हे जीव ! इस संसार में यह जीव धर्म करके महादुर्लभ वस्तु प्राप्त करता है। त्रिभुवन में जो-जो सारभूत (श्रेष्ठ) वस्तुयें हैं इस जीव को धर्म के कारण प्राप्त होती हैं। इसे क्या जानो ? धर्म का फल है ऐसा जानो । धर्म के कारण से यह जीव स्वाधीन पद यानि मोक्षपद को प्राप्त करता है 1 कहा भी है - धर्मतः सकलमङ्गलावलीअर्थात् :- धर्म से सफल भयल की प्राप्ति होती है। धर्म से हो सकल सौख्य की संपदा मिलती है। धर्म से ही चारों ओर निर्मल यश फैलता है। इसलिये है। जीव ! तुम्हें धर्म करना चाहिये । और भी कहा है - वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये - अर्थात् :- वन में, समरभूमि में, वायु में, जल में, अग्नि में. महासागर में, पर्वत के मस्तक पर, सुप्त, प्रमादयुक्त अथवा विषमस्थिति से युक्त जीव की रक्षा पूर्वकृत कर्म ही करते हैं। भावार्थ : आगम का परिशीलन करने पर ज्ञात होता है कि - (१) सीता के लिये बनाया गया अग्निकुण्ड शीतल सरोवर बना। (२) श्रीपाल सागर में तैरकर सुखरूप आ गया। (३) सोमा ने महामन्त्र बोलकर छड़े में हाथ डाला तो सांप का हार बन गया। (४) अंजना वन में परिभ्रमण कर रही थी तो विद्याधर ने उष्टापढ़ के रूप में आकर उसे शेर से बचाया। (५) पाण्डत लाख के महल से सुरक्षित निकल आये । (६) द्रोपदी का भरी सभा में चीर बढ़ गया । (७) सुदर्शन की शूली सिंहासन बन गई। आदि-आदि। इन सबसे मालूम पडता है कि धर्म की अचिन्त्य महिमा है। हर संकट में यह एक हद सम्बल है। धर्म आत्मा को संतुष्टि प्रदान करता है। धर्म दुःखों के नाश की अमोघ औषधि है । यह धर्म अमरपद प्रदान करने वाला होने से
SR No.090408
Book TitleSamboha Panchasiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGautam Kavi
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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