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________________ संतोष पंचासिया आसव व बंध कराती है। हिंसा वैर-विरोध की अनन्तकाल के लिए बढ़ाती है। हिंसा एक ऐसा पाप है कि जिसके सानिध्य में संसार के सारे पाप परिपुष्ट होते हैं। पाप जीव का भयंकर शत्रु हैं। पाप इस जीव को भयंकर श्वसागर में ( नरक में ) ढकेल देता है। अतएव नरक से भयभीत रहने वाले भव्यजीवों को आरंभ का त्याग करना चाहिये। आरंभ का त्याग करने के लिए विविध प्रकार के व्रतों का अंगीकार करना आवश्यक है ! कर्मों का फल जं जंतुर जंतं परिषद जं जं व हिवणे रोयं । तं तं पावइ जीवो पुव्व किये कम्मदोसेण ॥ ३३॥ अन्वयार्थ : -- ( तिहुवणे) तीन भुवन में (जं जं) जो जो (दुः क्खं) दुःख (परिभव) अनादर (रोयं) रोग हैं ( तं तं ) वे वे (जीवो) जीव को (पुव्व) पूर्व (किये) कृत (कम्मदीसेण) कर्म के दोष से (पावह) प्राप्त होते हैं। संस्कृत टीका : हे शिष्य ! अत्र संसारे पूर्वाशुभकर्मोदयात् यथा यथायं जीवो दुःखं प्राप्नोति तथा तथा दुःखं भुङ्क्ते । च पुनः पूर्वाशुभोदयात् भवसुखमग्नी भावादयं जीवः चतुर्गतिषु परिभ्रमणं करोति । कैः सह ? जन्मजरामरणरोगवियोग दारिद्र्यादीनां दुःखैः सह । केन ? कुदेवपूज्ञाभावं कृत्वा । कस्मात् ? पूर्वकर्मोदयात् । टीकार्थ : हे शिष्य ! इस संसार में पूर्व अशुभकर्म के उदय के वश जो-जो दुःख यह जीव प्राप्त करता है तथा उसको भोगता है और पूर्व के अशुभकर्मों के उदय से भवसुख में मग्ज होकर चारों गतियों में परिभ्रमण करता है । शंका किसके साथ परिभ्रमण करता है ? समाधान :- जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, वियोग, दरिद्रतादि के साथ परिभ्रमण करता है । शंका :- किस कारण से दुःख सहन करता है ? समाधान :- कुदेव की पूजा करने के भाव से यह दुःख सहता है । शंका :- इस जीव के ऐसे भाव क्यो होते हैं। 42 --
SR No.090408
Book TitleSamboha Panchasiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGautam Kavi
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year2003
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size2 MB
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