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संदौर चंचासिया | अनुसार(शक्ति के अनुसार) जिनाना कर । इन्द्रियादिक सुखों की वांछा छोड़कर जिनार्चना कर । मद्य-पद्यमय स्तुति कर
पारिभाषिक शब्दों की भरमार ग्रन्थ में न होकर सरल शैली का प्रयोग | राज्य में हुआ है।
हिन्दी टीकाकार . परम पूज्य आराध्य गुरुदेव १०८ श्री सुविधिसागर जी महाराज ने | टीका के माध्यम से अनेकों भव्यों पर सहजतया अनुग्रह किया है।
टीका में भावार्थ के द्वारा मुनिश्री ने वस्तु का व्यथित वर्णन किया है । बारह भावन' मोक्षगाह कइहाला कार्तिकेयानपेटा, द्वात्रिंशतिका. समाधिभक्ति, सुविधि गीतमालिका इनका माध्यम लेकर भावार्थ को प्रमाणिक बनाने का प्रयत्न उनका रहा है ।
अबतक यह ग्रन्थ प्रसिद्ध न हो पाया था, क्योंकि इसकी केवल १000, प्रतियाँ निकली थी, ऐसा प्रतीत होता है । यद्यपि सुविधि ज्ञान चन्द्रिका गन्ध प्रकाशन समिति के द्वारा इसकी प्रथम आवृत्ति के माध्यम से १००० प्रति ही प्रकाशित हई थीं। फिर भी मुनि श्री के आशीर्वाद से अभी 9000 प्रतियों का प्रकाशन हो रहा है । मुनिश्री की साहित्य साधना व चारित्र आराधना इसीतरह बढ़ती रहें यही कामजा।
ग्रन्थ के अन्त में धानतरायकृत हिन्दी अनुवाद पाठकों की सुविधा के लिए प्रकाशित किया गया है । प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष में अनेक लोगों का सहयोगा इस कृति के प्रकाशन में हुआ है। उन सबको आशीर्वाद । पाठक लोग इस कृति का लाभ लेकर संसार से वैराग्य फल को प्राप्त करें यही कामना।
विद्वदर्ग से निवेदन है कि वे अपना अमूल्य समय इस कृति के पठन में लगाकर हमारी त्रुटियाँ हमें ज्ञात कराने का कष्ट करें ताकि आगामी संस्करण में संशोधित रूप से प्रकाशित हो ।
आर्यिका वय सुविधिमती माताजी तथा सुयोगमती माताजी