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रयणसार
"जावत शुद्धोपयोग पावत नाहि मनोग । तावत ही करण योग कहि पुण्यकरणी ॥"
जब तक शुद्धोपयोग व शुक्लध्यान की प्राप्ति न हो तब तक धर्मध्यान का अभ्यास आवश्यक हैं । वह धर्मध्यान मुक्तिमार्ग हैं। आज भी जो जीव रत्नत्रय से युक्त हो त्रिकरण की शुद्धिपूर्वक धमंध्यान में स्थित होता है वह लौकांतिक, देव, सौधर्म इन्द्र आदि पदों को प्राप्त कर वहाँ से च्युत हुआ मुक्ति को प्राप्त करता है
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धर्मध्यान बीज हैं, शुक्लध्यान फूल हैं और मुक्ति / मोक्ष उसका फल हैं। मोक्ष प्राप्ति या कर्मों का क्षय बीज पर निर्भर है। जैसा बीज होगा वैसा फूल व फल लगेगा | अतः धर्मध्यान का अभ्यास मोक्षेच्छुक निकट भव्यात्मा की प्रथम सीढ़ी हैं ।
कालादि लब्धि से आत्मा परमात्मा
अदि-सोहण जोएणं, सुद्धं हेमं हवेइ जह तह य । कालाई - लडीए, अप्पा परमप्पओ हवदि । । १६३ ।।
अन्वयार्थ - ( जह ) जिस प्रकार ( अदि-सोहण जोएणं ) अति शोधन क्रिया से ( सुद्धं हेमं हवेइ ) स्वर्ण शुद्ध होता है ( तह य ) उसी प्रकार (. कालाई - लद्धीए ) कालादि लब्धि के द्वारा ( अप्पा ) आत्मा (परमप्पओ) परमात्मा (हवदि) होता है ।
पयडी - सील सहावो जीबंगाणं अणाइसंबंधो । Surata ले वा ताणत्थित्तं सयं सिद्धं ॥ २ क. का. गो. ।।
जिस प्रकार स्वर्ण पाषाण में किकालिमा का अनादि संबंध चला आ रहा है उसी प्रकार जीव- शरीर [ कार्मण ] का अनादि काल से संबंध है । इन दोनों का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है। स्वर्ण की अनादिकालीन किट्टकालिमा १६ तावरूप शोधन क्रिया द्वारा दूर होते ही स्वर्ण पाषाण शुद्ध स्वर्ण बन जाता हैं। उसी प्रकार अनादिकालीन द्रव्यकर्म-नोकर्म भावकर्म रूप किट्ट कालिमा जो जीव के साथ लगी हुई है वह बारह तप व चार आराधना रूप सोलह ताव लगने पर काल आदि लब्धि को प्राप्त कर आत्मा परमात्मा हो जाता है।