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हता
गुणगता योगेश रन्नमाला महाराज 81
अपरिग्रह ब्रत का फल अतिकांक्षा हता येन ततस्तेन भवस्थितिः।
हस्विता निश्चितावस्य कैवल्य सुखसंगतिः।। ४५. अन्वयार्थ : येन जिसके द्वारा ज्ञातव्य है कि अतिकांक्षा अत्यन्त इच्छा श्रावकाचार संग्रह में निश्चितावस्य के स्थान पर
नष्ट की गई । निश्चितावस्य प्रकाशित हुआ है। ततः वहाँ से
उस के द्वारा भवस्थितिः भवस्थिति हस्विता कम की गई अस्य ऐसे जीव को निश्चितो निश्चित कैवल्य केवल ज्ञान और सुखसंगतिः सुखादिक की संगति (प्राप्त होती है।
अर्थ : जिसने आशा का नाश किया है, वह भवस्थिति को कम करता है तथा अवश्य ही केवलज्ञान व सुखादि की संगति को प्राप्त करता है। | भावार्थ : परितः गहनाति आत्मानमिति परिग्रहः इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो आत्मा को सर्वतोमुखेन जकड़ लेवें, वह परिग्रह है। आचार्य उमास्वामी लिखते हैं - मूर्चा परिग्रहः (तत्त्वार्थसूत्र ७/१७) मूर्छा को परिग्रह कहते हैं। मूर्छा क्या है? आचार्य अकलंक देव लिखते हैं कि- बाह्याभ्यन्तरोपाधिसंरक्षणादि व्याप्रतिमू । (राजवार्तिक ७/१७/१) बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह के रक्षण आदि के व्यापार को मूर्छा कहते हैं।
बाह्य परिग्रह में स्त्री पुत्र परिजनादि चेतन परिग्रह हैं तथा मणि मुक्ता पुष्प वाटिका |आदि अचेतन परिग्रह हैं। आगम शास्त्र में इस के संग्रह नय से दश भेद किये हैं। क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण. धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य-भाण्ड। आभ्यन्तर परिग्रह १४ हैं। बृहत् प्रतिक्रमण में लिखा है कि
मिष्ठत देय राया-तहेव हस्साविया य छहोस्सा।
चत्तारि तह कासाया, चउदस अब्भंतर गंथा।। | अर्थ : मिथ्यात्त, तीन वेद, हास्यादि षट नोकषाय, चार कपाय ये १४ आभ्यन्तर परिग्रह है।
(यह गाथा भगवती आराधना में भी पायी जाती है. देखो १११२) परिग्रह सम्पूर्ण विभावों का मूल है। परिग्रह के संग्रहार्थ मनुष्य अनेक प्रकार के आरंभ
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