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________________ रक्ष्णमाला - क्र. २० नामक अनर्थदण्ड कहते हैं। प्रमादयुक्त चर्या का त्याग, प्रमादचर्या विरति है। : ३. भोगोपभोग परिसंख्यान भोग उपभोग की परिभाषा करते हुए आ. समन्तभद्र ने लिखा है कि भुक्त्वा परिहातव्यो भोग । रत्नकरण्ड श्रावकाचार ८३) जो वस्तुएं भोग कर छोड़ दी जाती हैं, वे भोग हैं। तथा भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्यः उपभोगः । ( रत्नकरण्ड श्रावकाचार ८३३ भोग कर पुनः भोगना, उपभोग है। परिसंख्यान का अर्थ परिमाण करना यानि मर्यादा करना है । अर्थात् भोग की वस्तुओं तथा उपभोग की वस्तुओं के प्रति अपना ममत्व हटाने के लिए, उनकी मर्यादा करना, उसका नाम भोगोपभोग परिसंख्यान व्रत है। पूल क 33 - आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है कि भोगोपभोग मूला, विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा । अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यौ । । पुरुषार्थ सिध्द्युपाय- १६ १ ३ अर्थ : कुछ अंशों में विरत कुछ अंशों में अविरत अर्थात् देशव्रती पंचमगुणस्थानवर्ती पुरुष के भोग और उपभोगों के कारण से होने वाली हिंसा होती है और किसी निमित्त से नहीं होती, वस्तुस्वरूप को जान करके अपनी शक्ति के अनुसार वे दोनों, भोग उपभोग भी छोड़ देने चाहिए। कुछ ग्रंथों में गुणवत्तों में दिव्रत देशव्रत और अनर्थदण्ड व्रत ग्रहण किये गये हैं । यथा - दिग्देनार्थदण्ड विरति..... (तत्त्वार्थसूत्र ७/२११ दिव्रत में गृहीत मर्यादा को घण्टा घड़ी वर्ष पक्ष -मासादि के लिए घटाना देशव्रत है। अब शिक्षाव्रतों का स्वरूप बताया जाता है। १. सामायिक : आचार्य अकलंक देव ने लिखा है कि ष्टकत्वेन गमनं समयः। समेकीभावे वर्त्तते तद्यथा "संगतं धृतं संगतं तैलम् " इत्युक्ते एकीभूतमिति गम्यते । एकत्वेन गमनं समयः । प्रतिनियत काय वाङ्मनस्कर्म पर्यायार्थं प्रतिनिवृतस्वादात्मनो द्रव्यार्थेनैकत्वगमनमित्यर्थः । समय एव सामयिकम् । समयः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम् । " (राजवार्तिक- ७/२१/७/ अर्थ: एकत्वरूप से गमन (लीनता) का नाम समय है। "सम" शब्द एकीभाव अर्थ में है। जैसे "संगतधृत, संगततैल" ऐसा कहने पर तैल वा धृत एकमेव हुई वस्तु का ज्ञान होता है, अर्थात् इसमें "सम" शब्द एकीभाव अर्थ में है। इसी प्रकार "एकत्व से गमन" एकमेक हो जाने का नाम समय है। अर्थात् काय, वचन और मन की क्रियाओं से निवृत्ति होकर आत्मा का द्रव्यार्थ में एकत्व रूप से लीन होना समय है। समय का भाव या समय का प्रयोजन ही सामायिक है, अर्थात्, मन, वचन, और काय की क्रियाओं का निरोध कर के अपने स्वरूप में स्थिर हो जाना ही, सामायिक है। सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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