________________
JAUSI - LI
रत्नमाला
लेखक की लेखनी से
व्युत्पत्तिकार रत्न शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए लिखते हैं कि जात जात यदुत्कृष्टं तत्तद्रत्नमिहोच्यते ।
अर्थः- जो जो अपनी जाति में उत्कृष्ट हैं, उन्हें उस उस जाति का रत्न कहा जाता है। मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन- सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र मुख्य है, अतः वे मोक्षमार्गस्थ रत्नत्रय हैं।
******
अनेक रत्न जब एक धागे में पिरोये जाते हैं, तब रत्नमाला बन जाती है। उसी प्रकार प्रस्तुत ग्रंथ में श्रावकों के सम्यक् आचरण के रत्न पिरोये गये हैं, अतः इसका रत्नमाला यह नाम सार्थक ही है।
-
ग्रंथ का नाम एवं ग्रंथकर्ता :
:+
स्वयं ग्रंथकर्त्ता ने ग्रंथान्त में स्वयं का व ग्रंथ का नाम दिया है।
यथा यो नित्यं पठति श्रीमान् रत्नमालामिमां परम् ।
स शुद्ध भावनंपेत शिकारमात् ।।
अर्थ: जो भव्य इस रत्नमाला को शुद्ध भावना से युक्त होकर पढ़ता है, वह भव्य शिवकोटित्व को प्राप्त कर लेता है।
प्रस्तुत श्लोक से यह ज्ञान होता है कि इस ग्रंथ का नाम रत्नमाला तथा ग्रंथकार का नाम शिवकोटि है।
अब प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत ग्रंथ के लेखक आ. शिवकोटि कब हुए? तथा उनका पूर्ण परिचय क्या है?
-
यह बड़ा जटिल विषय है। आचार्यों का निरहंकारित्व व श्रावकों की लापरवाही से जैन इतिहास के अनेकों प्रश्न अनुत्तरित ही रह गये हैं, क्योंकि प्रमाण मिल नहीं पाते ।
- ग्रंथ का वर्ण्य विषय
1
यह श्रावकाचार प्रतिपादक ग्रंथ है। अतः श्रावकाचार से सम्बन्धित अनेक विषयों का वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है। लघुकाय ग्रंथ में सूक्ष्म रीति से गहन विषयों को संजोयकर ग्रंथकार ने चमत्कार ही कर दिया।
ग्रंथ के प्रारम्भ में वीर प्रभु अनेकान्तमयी अर्हत् वचन, सिध्दसेन दिवाकर तथा स्वामी समन्तभद्रं की वन्दना कर के ग्रंथकार ने ग्रंथ रचना की प्रतिज्ञा की है ।
तत्पश्चात् सम्यग्दर्शन का कल्याणकारित्व बताते हुए, सम्यग्दर्शन में कारणभूत सुदेव शास्त्र गुरु का स्वरूप बताया, फिर सम्यग्दर्शन का लक्षण व महत्त्व प्रदर्शित किया।
उसके बाद बारह व्रतों का नामोल्लेख किया गया है। श्रावक को कैसा पानी पीना चाहिये ? भोजनालय में कैसा पानी प्रासुक है ? पानी प्रासुक कैसे होता है? इसका जो वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है, वह ग्रंथान्तरों में दुर्लभ है। यह प्रकरण अवश्य ही आज
सुविधि शाठा चक्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.