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________________ CTOR) . .२० रत्नमाला ४ . .27 चौर्यात् परिग्रहात् qi. : 27 अणुब्रतों का स्वरूप हिंसातोऽसत्यतश्चौर्यात् परनार्याः परिग्रहात् । विमतेर्विरतिः पञ्चाणुद्रतानि गृहेशिनाम् ।। १५, अन्वयार्थ : हिंसातः हिंसा से असत्यतः असत्य से चोरी से परनार्या : परनारी से परिग्रह से विमते : पापवृत्ति से विति: विरीत यह) गृहेशिनाम् गृहस्थों के पञ्च पाँच अणुव्रतानि अणुव्रत भवन्ति होते हैं। अर्थ : हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप पापवृत्ति से विरक्त होना, ये गृहस्थों के पाँच अणुव्रत हैं। भावार्थ : जीव, परमशुध्द द्रव्य है। पुद्गल के संसर्ग में आसक्त होकर उसने अपने स्व स्वरूप को भूला दिया है। विभ्रमित होकर वह अनादिकाल से संसार में संसरण कर रहा है। आत्मशुद्धि के लिए धर्म ही एक सहायक मित्र है। धर्म मार्ग पर गमन करने का इच्छुक भव्य सर्व प्रथम श्रावक धर्म अंगीकार करता है। श्रावक धर्म अणुव्रतों को ग्रहण किये बिना प्रकट नहीं होता। ___ अणुव्रत का लक्षण करते हुए भास्करनन्दि आचार्य लिखते हैं कि हिंसादिभ्यो देशेन विरतिरणुव्रतम् (तत्त्वार्थवृत्ति ७/२) हिंसादि पंच पापों से एकदेश विरत होना, अणुव्रत अणुव्रत पाँच होते हैं। अर्हिसाणुव्रत - पं. आशाधर जी ने लिखा है कि - शान्ताधष्टकषायस्य संकल्पनवभिस्त्रसान । अहिंसतो दयार्द्रस्य स्यादहिंसेत्युणुव्रतम् ।। (सागर-धर्मामृत ४/७) ___ अर्थ : शान्त हो गये हैं - आदि के आठ कषाय जिसके ऐसे, दया के द्वारा कोमल है हृदय जिसका ऐसे तथा मन, वचन, काय और कृत, करित, अनुमोदना इन नौ संकल्पों से दो इन्द्रिय आदिक जीवों की हिंसा नहीं करने वाले व्यक्ति के अहिंसा नामक अणुव्रत होता है। आरंभी, उद्योगी, विरोधी और संकल्पी, इस तरह हिंसा के चार भेद हैं। गृहस्थ सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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