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________________ - २०० रत्नमाला - 191A | महान पुरुषार्थी, मनुष्य - शिरोमणि होते हैं। दैव शब्द का अर्थ देव पर्याय करनेपर सुदैव का अर्थ अच्छी देवपर्याय अर्थात् विमानवासी | देवपर्याय. यह अर्थ ध्वनित होता है। उमास्वामी महाराज लिखते हैं कि - सम्यक्त्वं च। (तत्त्वार्थसूत्र ६/२१) टीकाकार आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है कि - " अविशेषाभिधानेऽपि सौधर्मादिविशेषगतिः पृथक्करणात् | सम्यक्त्वं देवस्यायुष | आश्रव इत्यभिधानेऽपि सौधर्मादि विशेषगतिर्भवति। कुतः? पृथक्करणात् । राजवार्तिक ६/२१/१) अर्थः विशेष कथन न होने पर भी पृथक सूत्र होने से सौधर्मादि विशेष गति जाननी चाहिए। सम्यक्त्व देवायु के आम्रव का कारण है। ऐसा सामान्य कथन होने पर भी | सम्यग्दर्शन सौधर्मादि कल्पवासी देव सम्बन्धी आयु के आग्नव का कारण है, यह समझना | चाहिए क्योंकि पृथक सूत्र से यह ज्ञात होता है। ___ चतुर्थ गुणस्थान में भी अनन्त संसार की कारणभूत कर्म प्रकृतियों का आश्रव नहीं होता। __ सम्यग्दर्शन के होने पर ४१ कर्म प्रकृतियों का बंध छूट जाता है। मिथ्यात्व गुणस्थान में विच्छिन्न होने वाली १६ प्रकृतियाँ-मिथ्यात्व, हुंडकसंस्थान, नपुंसकवेद, असंप्राप्तासृपाटिका |संहनन, एकेन्द्रियजाति, विकलत्रय तीन, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, नरकगति नरकगत्यानुपूर्वी, नरकायु। इसी प्रकार दूसरे गुणस्थान में बन्धव्युच्छित्ति होने वाली २५ प्रकृतियाँ हैं- अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्यानगृध्दि, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय. न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, स्वाति संस्थान, कुब्जक संस्थान, वामन संस्थान, वञ्चनाराचसंहनन, नाराचसंहनन, अर्धनाराचसंहनन, कीलकसंहनन. अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीर्वद, नीचगोत्र. तिर्यंचगति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचायु उद्योत। ___ एकबार सम्यग्दर्शन प्राप्त कर चुका जीव अर्धपुद्गल परावर्तन से अधिक काल संसार में नहीं भटकता, यह सम्यग्दर्शन का महत्व है। सुविधि ज्ञान मन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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