SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Mil.. - २॥ रत्नमाला गत रा.. - 12 MSO RSION सु-देव तथा सछात्र का स्वरूप निर्विकल्पश्चिदानन्दः परमेष्ठी सनातनः। दोषातीतो जिनो देवस्तदुपज्ञ श्रुतिः परा।। ७ अन्वयार्थ : निर्विकल्पः चिदानन्दः परमेष्ठीः सनातनः दोषातीतः निर्विकल्प चिदानन्द परमेष्ठी सनातन दोषरहित जिनेन्द्र (ही) देव हैं उनके द्वारा कहा हुआ उत्कृष्ट जिनः देवः तत् उपज्ञम परा श्रुतिः अर्थ : जो निर्विकल्प है, चिदानन्द हैं, सनातन है, दोषातीत हैं. वे जिनेन्द्र देव हैं।। उनके द्वारा कथित शास्त्र ही उत्कृष्ट शास्त्र है। ___ भावार्थ : संसार में भगवान् के विषय में नाना मत प्रचलित हैं, परन्तु वे सब श्रेयो। | मार्ग के प्रदाता न होने से मिथ्या हैं। फिर सम्यक-देव का स्वरूप क्या है? जिनेन्द्र देव | ही सच्चे देव हैं। कैसे हैं वे? ग्रंथकार ने उनका स्वरूप स्पष्ट करते हुए पाँच विशेषण दिये | । १.निर्विकल्प :- विकल्प का अर्थ राग अथवा इच्छा है। जिनेन्द्र प्रभु ने माहनीय कर्म का पूर्णतया उच्चाटन कर दिया है। अतः उनमें किसी प्रकार की इच्छा उत्पन्न नहीं होती। इसलिए उन्हें निर्विकल्प कहा जाता है। २. चिदानन्द :- संसार के समस्त प्राणी इन्द्रियजनित सुख- दुःख का उपभोग कर | रहे हैं। जिन्होंने वेदनीय कर्म का सम्पूर्ण नाश कर दिया है, ऐसे जिनेन्द्र देव निरन्तर चैतन्य का परमानन्द प्राप्त करते हैं। ३. परमेष्ठी :- इस शब्द को परिभाषित करते हुए आ. प्रभाचन्द्र लिखते हैं कि, परमे इन्द्रादीनां वन्द्ये पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी (रत्नकरण्ड प्रावकाचार-७) अर्थ : इन्द्रादिकों के द्वारा वन्दनीय परमपद में वे रहते हैं - अतः वे परमेष्ठी हैं। ४. सनातन :- सनातन शब्द-नित्य-निरन्तर-शाश्वत आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है। - - - - - - - - -- -- - - - - - सुविधि ज्ञान चन्द्रिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy