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________________ पुषा. - २ रत्नमाला पृष्ठ प्रा. . 93E | कहते, अपितु इस समय में भोजन करना भी रात्रि भोजन है। ॥ १) रात्रि भोजन त्यागी को रात्रि में बना हुआ, रात्रि को खाना, २) दिन को बना हुआ, | रात्रि को खाना तथा ३) रात्रि का बना हुआ-दिन में खाना, ये तीनों दोष टालने चाहिये। आ. अमृतचन्द्र ने लिखा है कि - अर्कालोकेन विना भुञ्जानः परिहरेत्कथं हिंसाम्। अपि बोधित प्रदीपे, मोज्यजुषा सूक्ष्मजन्तूनाम्।। (पुरुषार्थ सिद्युपाय - १३३) अर्थ : सूर्य के प्रकाश के बिना रात्रि के अंधकार में भोजन करने वाला दीपक के जला लेने पर भी भोजन में प्रीतिवश गिरनेवाले सूक्ष्म जन्तुओं की हिंसा को कैसे बचा सकता है? अर्थात् नहीं बचा सकता।। | इससे यह कु-तर्क भी व्यर्थ हो जाता है कि दीपक अथवा लाइट के प्रकाश में भोजन करना दूषक नहीं है। । रात्रि में सूर्यप्रकाश के अभाव में अनेक सूक्ष्म जीव उत्पन्न होते हैं। भोजन के साथ यदि जीव पेट में चले गये तो रोग के कारण बनते हैं। इनके पेट में जाने पर । ये रोग होते है चींटी, चींटा बुद्धिनाश जलोदर मक्खी वमन लिक कोद स्वरभंग मरण नूँ, जूएँ बाल बिच्छु __ रात्रि भोजन का त्याग करने से प्राणी संयम पलता है। अहिंसा व्रत विशुध्द होता है, करुणा भाव का संरक्षण होता है तथा स्वास्थ्य लाभ होता है-अतः बुध्दिमानों को रात्रि भोजन का पूर्णतया त्याग करना चाहिये। । ग्रंथकार कहते हैं कि छत्र-चंवर-घोड़ा-हाथी-रथ और पदातियों से यक्त नर (राजा) जहाँ कहीं भी दिखाई पड़ते हैं, ऐसा समझना चाहिये कि उन्होंने पूर्व भव में रात्रिभोजन का त्याग किया था। उस त्याग से उपार्जित हुए पुण्य को वे भीग रहे हैं। सुविधि शाम चरिका प्रकाशन संस्था, औरंगाबाद.
SR No.090399
Book TitleRatnamala
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
AuthorSuvidhimati Mata, Suyogmati Mata
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size3 MB
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