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रलकर श्रावकाचार
गर्व करना पूजामद है। पिता के वंश को कुल कहते हैं। इसका अहंकार करना कुल मद है । माता के वंश को जाति कहते हैं जाति का गर्व करना जातिमद है । शारीरिक शक्ति का गर्व करना बलमद है। बुद्धि या धन-वैभव का गर्व करना ऋद्धिमद है। अनशनादि तपों का अहंकार करना तपमद है। स्वस्थ-सुन्दर शरीर को पाकर उसका घमण्ड करना शरीरमद है।
यहाँ कोई शंका करता है कि-कला-कौशल का भी तो भद होता है इसलिए नौ मद हो गये अतः आपके द्वारा बतायो गयी मदों की आठ संख्या सिद्ध नहीं होती? इसके उत्तर में टीकाकार का कहना है कि शिल्प का मद ज्ञानमद में ही गभित हो जाता है। इसलिये नौवाँ मद मानने की कोई आवश्यकता नहीं है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन की पूर्ण विशुद्धता में बाधक आठ मद हैं। अपने आपको बड़ा एवं श्रेष्ठ समझना और दूसरों को हीन एवं तुच्छ मानना स्मय-मद कहलाता है । प्रायः संसारी जीव बहिई ष्टि हैं, उनका स्वभाव नेत्र के समान है । जिस प्रकार नेत्र अपने से भिन्न अन्य पदार्थों को देखते हैं, अपने आपको नहीं देखते, न अपने को देख ही सकते हैं। इसी प्रकार संसारी प्राणी अपने को नहीं देखकर पर पदार्थों को ही देखते हैं । मोह के कारण उनका देखना भी अन्यथा हुआ करता है। संसारी जोव संसार के पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना किया करता है। यदि भाग्यवश अनुकूलता से इष्ट विषय का लाभ हो जाता है तो अपना उत्कर्षण समझता है और अपने बल, बुद्धि और पौरुष पर हर्षित होता है कि मैंने अपने पुरुषार्थ और चातुर्य से अपने इष्ट कार्य की सिद्धि करली और यदि अनिष्ट की प्राप्ति हो जाती है तो दूसरों के प्रति द्वेष करता है कि अमुक व्यक्ति ने मेरा काम तमाम कर दिया, इसके कारण ही मेरे ऊपर इस प्रकार का संकट उपस्थित हो गया है इत्यादि । किन्तु अपने इष्ट और अनिष्ट में अन्तरंग बलवान कारण भाग्य-कर्मोदय को माना गया है। संसार में ज्ञानादिक आठ वस्तुओं के सम्बन्ध से अज्ञ प्राणी अहंकार करता है। वास्तव में, ये शानादिक स्वयं मदरूप नहीं हैं, किन्तु अहंकार के कारण हैं । कोई भी सम्यग्दृष्टि यदि अपने अन्य सामियों के साथ इन आठों में से किसी भी विषय को लेकर उनके तिरस्कार के भाव रखता है तो उसके सम्यग्दर्शन में जो स्मय-मद नामका दोष है, वह उत्पन्न होता है और सम्यग्दर्शन की विशुद्धता नष्ट होती है। कदाचित् सम्यग्दर्शन के नष्ट होने की सम्भावना भी उपस्थित हो जाती है, क्योंकि इस प्रकार गर्वयुक्त परिणामों