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रत्नकरण्ड थावकाचार
[७७ स्वस्तिक एवं यज्ञभाग ग्रहण करने के लिए कहा गया है। इसी प्रकार और भी अनेक आचार्यों के प्रमाण हैं जिनमें अभिषेक-पूजन के पूर्व शासनदेवों का यथाविधि अादिक देकर सम्मान करने के लिए कहा गया है। इस प्रकार आगम से सुसिद्ध विषय को आगम के विरुद्ध कहना उचित नहीं है ।
दोष का कारणभूत आशय भेद जिन प्रकारों से सम्भव हैं वे चार प्रकार ही श्री समन्तभद्र स्वामी ने आशा, रागद्वेषमलीमसत्व, वरोपलिप्सा और उपासना शब्दों के द्वारा व्यक्त कर दिये हैं। व्रतों की तरह सम्यग्दर्शन के भी चार दोष-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार होते हैं, जिसका मतलब यह है कि जब तक सम्यरदर्शन इन दोषों से रहित नहीं हो जाता तब तक वह मोक्षमार्ग के सम्पादन में वस्तुतः असमर्थ है। इस कथन का यह भी अभिप्राय नहीं है कि अतिक्रमादि दोषों के लगने पर सम्यग्दर्शन समूल नष्ट हो जाता है । प्राय: सभी विद्याधर जो कि मातृपक्ष की एवं पितृपक्ष की अनेक विद्याओं को सिद्ध करते थे और उन-उन विद्याओं की अधिष्ठात्री देवियों और देवों की आशा और परोपलिप्सा से प्रेरित होकर ही उपासनादि किया करते थे, उन सबको मिथ्याइष्टि नहीं कह सकते, हां, उनका सम्यग्दर्शन समल माना जा सकता है।
यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि सम्यग्दर्शन में सम्यक्त्व प्रकृति के उदय के निमित्त से भी दोष लगते हैं और सम्यक्त्व प्रकृति के असंख्यात लोकप्रमाण भेद हैं। इसका यह अभिप्राय भी नहीं है कि केवल क्षयोपशम सम्यक्त्वी ही इस प्रकार की क्रियाएँ करते हैं। क्षायिक सम्यक्त्वी चक्रवर्ती भरत ने भी दिग्विजय के समय मार्ग प्राप्ति हेतु डाभ के आसन पर बैठकर और तीन दिन का तेला स्थापित कर अनुष्ठान किया था। ( देखिए महापुराण )
सारांशतः, भव्य जीवों को आत्मसिद्धि प्राप्त करने के लिए मूलभूत सम्यरदर्शन की विशुद्धि सिद्ध करनी चाहिए और उसके लिए अन्य दोषों की भांति देवमढ़ता नामक दोष भी छोड़ना चाहिए ।।२३।।
इदानीं सद्दर्शनस्वरूपे पाषण्डिमूढस्वरूपं दर्शयन्नाह
सग्रन्थारभहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् । पाषण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषण्डिमोहनम् ॥२४॥