________________
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
[ ३३७
उत्कृष्ट उद्दिष्टविरति लक्षणकादशगुणस्थानयुक्तः श्रावको भवति । कथंभूतः ? चेलखण्डधरः कौपीनमात्रवस्त्रखण्डधारक: आयलिंगधारीत्यर्थः । तथा भक्ष्याशनो भिक्षाणां समूहो भक्ष्यं सदश्नातीति भैक्ष्याशनः । किं कुर्वन् ? तपस्यन् तपः कुर्वन् । कि कृत्वा ? परिगृह्य गृहीत्वा । कानि ? नतानि । क्व ? गुरूपकण्ठे गुरुसमीपे । कि कृत्वा ? इत्वा गत्वा । किं तत् ? मुनिवनं मुन्याश्रमं । कस्मात् ? गृहतः ।।२६।।
अब श्रावक उद्दिष्टत्याग गुण से युक्त होता है, वह दिखलाते हुए कहते हैं
जो ( गहतो ) घर से ( मुनिवनं ) मुनियों के वनको ( इत्वा ) जाकर (गुरूपकण्ठे) गुरु के पास (व्रतानि) व्रत (परिगृह्म) ग्रहण कर (भैक्ष्याशनः ) भिक्षा भोजन करता हुआ (तपस्यन्) तपश्चरण करता है तथा ( चेलखण्डधरः ) एक वस्त्रखण्ड को धारण करता है वह (उत्कृष्टः) उत्कृष्ट श्रावक है ।
___टोकार्थ- उद्दिष्टत्याग नामक ग्यारहवीं प्रतिमा का धारी श्रावक उत्कृष्ट कहलाता है। यह कौपीन-लंगोट, मात्र खण्डवस्त्र का धारक होता है । 'भिक्षाणां समहो भक्ष्य' इस प्रकार समूह अर्थ में अण् प्रत्यय होने से भक्ष शब्द बना है। इस प्रतिमा का धारी भिक्षा से भोजन करता है । अर्थात मुनियों की तरह गोचरी के लिए निकलता है । अथवा किसी पात्र में गृहस्थों के घरों से उदरपूर्ति के योग्य भोजन एकत्र करता है और अन्त में एक श्रावक के घर में जलादि लेकर भोजन करता है। इस प्रतिमा का धारक घर छोड़कर मुनियों के पास मुनि आश्रम में चला जाता है और व्रतों को धारण करता है ।
विशेषार्थ-उद्दिष्टविरत उत्कृष्ट श्रावक अपने उपदेश से बना भोजन ग्रहण नहीं करता । ग्यारहवीं प्रतिमाधारी का मोह अभी किंचित् जीवित है उसी का यह फल है कि वह पूर्ण जिनरूप मुनिमुद्रा धारण करने में असमर्थ है । दशम और ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक उत्कृष्ट है, फिर भी ग्यारहवों प्रतिमाधारी को एवंभूतनय से उत्कृष्ट कहा है और अनुमति विरत को नैगम्नय से उत्कृष्ट कहा है । अर्थात् ग्यारहवीं प्रतिमावाला तो वर्तमान में उत्कृष्ट है, किन्तु अनुमतिविरत आगे उत्कृष्ट होने वाला है, इस दृष्टि से उत्कृष्ट है। इस प्रतिमा का धारक अपने उद्देश्य से बना भोजन स्वीकार नहीं करता है, इसका अभिप्राय है कि वह नवकोटि से विशुद्ध भोजन को ही स्वीकार करता है। तथा भोजन की तरह अपने उद्देश्य से निर्मित उपधि, शय्या आसन आदि को भी स्वीकार नहीं करता ।