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रत्नकरण्ड श्रावकाचार १०. तत्सेवी दोष-जिस अपराध को प्रकट कर प्रायश्चित्त लिया है उस अपराध को पुनः पुनः करना अथवा जो अपराध हुआ है उसी अपराध को करने वाले आचार्य से प्रायश्चित्त लेना और यह अभिप्राय रखना कि जब आचार्य स्वयं यह अपराध करते हैं तब दूसरे को क्या दण्ड देंगे तत्सेवी दोष है ।
आलोचना के इन दस दोषों से निरन्तर बचना चाहिए।......
आचार्य के द्वारा प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्त ग्रादि विधि से दोषों का शोधन करके माया आदि तीन शल्यों से रहित होकर रत्नत्रयरूप मार्ग में विहार करे ।
मन और शरीर की निर्मलता अथवा प्रायश्चित्त विधानरूप विशुद्ध अमृत से सिंचित हुआ वह क्षपक आगम के अनुसार समाधि के लिए पूरब या उत्तर दिशा की ओर सिर करके निराकुल हो संस्तर ग्रहण करे । तथा यह जीवनपर्यन्त के लिए अहिंसादि महावतों को धारण करता है, यह महाव्रत धारण करने की बात उत्कृष्टता की अपेक्षा है। यदि शक्ति की हीनता हो तो ऐलक, क्षुल्लक आदि के व्रत भी धारण किये जा सकते हैं।
_ 'भक्त प्रत्याख्यान' कब करना चाहिए ? यह बताते हैं
जिसका प्रतिकार होना अशक्य है, ऐसी ध्याधि के होने पर, चारित्र-संयम को हानि पहुँचाने वाले बुढ़ापे के आने पर या देव, मनुष्य और तिर्यंचकृत घोर उपसर्ग उपस्थित होने पर अथवा चारित्र का घात करने में कारण ऐसे शत्र या मित्रों के होने पर या दुभिक्ष के कारण शरीर के क्षीण होने पर अथवा गहन वन में फंस जाने पर या दृष्टि से दिखाई न देने पर अथवा कानों से सुनाई न पड़ने पर अथवा जंघाबल घट जाने पर, विहार करने में असमर्थ होने पर, विरत हो या अविरत वह भोजन का त्याग कर देने का पात्र होता है । भक्तप्रत्याख्यान तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-भोजन के त्यागपूर्वक जो मरण होता है, उसे भक्त प्रत्याख्यान मरण कहते हैं। पहला प्रकार है शरीर-त्यजन-जब कोई ऐसा रोगादि हो जाता है जिसका इलाज अशक्य है तब शरीर को छोड़ने के लिए भोजन का त्याग कर दिया जाता है। दूसरा प्रकार है शरीर च्यवनजब आयु पूरी होकर शरीर छूटने का समय आता है तो भोजन त्याग दिया जाता है । तीसरा प्रकार है शरीर च्यावन-घोर उपसर्ग आदि से अचानक शरीर छूटता जान पड़े तो भोजन का त्याग कर दिया जाता है ।