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रत्नकरण्ड श्रावकाचार है--बाह्यपरिग्रह और अभ्यन्तरपरिग्रह । सल्लेखना धारण करने वाला पुरुष इन सब परिग्रहों को छोड़कर निर्मलचित्त होता हुआ स्वजन और परिजनों को प्रिय वचनों के द्वारा क्षमा करे । और उनसे अपने आपको क्षमा करावे । जो हिंसादि पाप स्वयं किया जाता है वह कृत है । जो दूसरों के द्वारा कराया जाता है उसे कारित कहते हैं, तथा दूसरे के द्वारा किये हुए पाप को जो मन से अच्छा समझा जाता है उसे अनुमत कहते हैं । इन सभी पापों की निश्चल भाव से आलोचना कर मरणपर्यन्त स्थिर रहने वाले अहिंसादि महावतों को धारण करे । तथा आलोचना के दस दोषों से रहित होकर आलोचना करे । आलोचना के दस दोष इस प्रकार हैं-१ आकम्पित २ अनुमानित ३ दृष्ट ४ बादर ५ सूक्ष्म ६ छन्न ७ शब्दाकुलित ८ बहुजन ६ अध्यक्त और १० तत्सेवी।
विशेषार्थ-१२४-१२५-सल्लेखना को धारण करने वाला मनुष्य स्नेह, वैर, संग और परिग्रह का त्यागकर शुद्ध मन होकर अपने स्वजन और परिजनों को क्षमा करके प्रिय वचनों के द्वारा उनसे क्षमा मांगे।
जो अपराधी को क्षमा करते हैं और उनसे जिनके प्रति अपराध हुआ है, उनसे क्षमा मांगते हैं उन्होंने संसाररूपी समुद्र को पार कर लिया है। किन्तु जो क्षमा मांगने पर भी क्षमा नहीं करते, वे दीर्घसंसारी हैं अर्थात् उनका संसार जल्दी समाप्त होने वाला नहीं है । कषायों को कृश करना ही सल्लेखना का लक्ष्य है। जिस प्रकार रोगी मनुष्य नीरोग होने की इच्छा से सभी प्रकार के रोगों को वैद्य के सामने प्रकट करके वैद्य की आज्ञा के अनुकूल प्रवृत्ति करता है, उसी प्रकार सल्लेखना धारण करने वाला क्षपक आलोचना के योग्य स्थान और योग्यकाल में निर्यापकाचार्य के सामने अपने व्रतादि में लगे समस्त अतिचारों का निवेदन करे । इसी का नाम आलोचना है। आलोचना दस दोषों से रहित होकर करनी चाहिए। आलोचना के दस दोष इस प्रकार हैं
पालोचना के दस दोष १. प्राकम्पित दोष-उपकरण देने से मुझे स्वल्प प्रायश्चित्त देंगे, ऐसा विचार करके प्रायश्चित्त के समय उपकरणादि देना अथवा दयनीय मुद्रा बना कर शरीर में भय उत्पन्न करके दोषों को कहना जिससे गुरु के हृदय में अपने प्रति दया