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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार प्रमाणता से ही वचनों में प्रमाणता आती है। इस प्रकार वक्ता की वास्तविक योग्यता का परिचय उपयुक्त विशेषणों से भली प्रकार हो जाता है। देव के लक्षण में वीतरागता और सर्वज्ञता का होना अनिवार्य है। ज्ञानाबरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्त राय इन चार धातियामा के नाश हो जाने से अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तबल ये चार अनन्त चतुष्टय प्रकट हो जाने से आप्तपना आता है, इन्हीं को सच्चा देव कहते हैं । जो तीर्थंकर होकर अरहन्त अवस्था को प्राप्त होते हैं उनकी दिव्यध्वनि नियम से खिरती है और उसके आधार पर गणधरदेव द्वादशांग श्रत की रचना करते हैं । जो अन्य पुरुष अरहन्त अवस्था प्राप्त करते हैं उनके दिव्यध्वनि खिरने का नियम नहीं है । हितोपदेशिता तो तीर्थंकर के ही होती है इसलिये आगमेशिता तीर्थकर को अपेक्षा ही समझनी चाहिए। __ आप्त शब्द का एक प्रसिद्ध अर्थ यह भी है कि जो जिस विषय में अवञ्चक है, वह उस विषय में आप्त माना जाता है। किन्तु यह बात भी दृष्टि में रहना जरूरी है कि अवञ्चकता के लिए वास्तव में अज्ञान, कषाय और दौर्बल्य इन तीनों दोषों का निहरण अत्यावश्यक है । इस कारिका में पारलौकिक आप्त का स्वरूप बताया है, वह पूर्ण निर्दोष है और लौकिक तथा पारलौकिक सभी विषयों की प्रामाणिकता पर प्रकाश डालता है। पारलौकिक आप्त से जो अविरुद्ध है वे ही लौकिक आप्त प्रामाणिक माने जा सकते हैं। न कि स्वतन्त्र और पारलौकिक आप्त के विरुद्ध भाषण करने वाले। यह बात पारलौकिक आप्त का असाधारण, सत्य निधि और पूर्ण लक्षण कहे बिना नहीं मालूम हो सकती थी, इसलिये भी कारिका की रचना आवश्यक थी। इस कारिका में दिये गये तीनों विशेषणों के बिना किसी तरह आप्तपना बन नहीं सकता। इस सब का निष्कर्ष यही है कि पूर्ण वीतरागता प्राप्त किये बिना अज्ञान का सर्वथा विनाश हो नहीं सकता । अर्थात् सर्वज्ञता प्राप्त नहीं हो सकती और उसके बिना श्रेयोमार्ग का यथार्थ वर्णन नहीं हो सकता, आगमेशिता बन नहीं सकती क्योंकि वीतरागता और सर्वज्ञता इन दोनों गुणों को प्राप्त किये बिना यथार्थ आगम की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यथार्थ वर्णन सर्वज्ञता के द्वारा ही हो सकता है और वही प्रमाण माना जा सकता है। किन्तु जब तक व्यक्ति समस्त दोषों का निर्मूलन नहीं कर देता तब तक सर्वज्ञता प्राप्त नहीं होती, सर्वज्ञता के पहले वीतरागता प्राप्त होती है। क्योंकि क्षीणकषाय बारहवें गुणस्थान में वीतराग तो कहे जाते हैं किन्तु सर्वज्ञ नहीं कहे जाते । राग, द्वेष, मोह के
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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