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________________ २४६ ] रत्नकरण शासकाचार पर्व का पर्यायवाची है अर्थात् प्रोषध और पर्व शब्द का अर्थ एक ही है। किन्तु आचार्य समन्तभद्रस्वामी के अनुसार एक बार भोजन करने को प्रोषध कहते हैं। तथा अशन, स्वाद्य, खाद्य और लेह्य के भेद से चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास कहा जाता है । अष्टमी और चतुर्दशी पर्व कहलाते हैं। उपवास पर्व के दिनों में किया जाता है । एक मास में चार पर्व आते हैं। प्रोषधोपवास वाले उपवास के पहले दिन अर्थात् सप्तमी और त्रयोदशी को एक बार भोजन करे। फिर अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास करके नौमी और अमावस्या या पणिमा के दिन भी एक बार भोजन करे इसे प्रोषधोपवास कहते हैं। यदि उपवास से पहले दिन और उपवास से अगले दिन दोनों बार भोजन किया जाय और पर्व के दिन उपवास किया जाय तो उसे प्रोषधोपवास नहीं कहते हैं । वह तो मात्र उपवास है । अतः आचार्य समन्तभद्र की व्युत्पत्ति ही अधिक संगत प्रतीत होती है। पं. आशाधरजी ने अपनी टीका में चतुर्भुक्ति के दो अर्थ किये हैं--चार प्रकार की भुक्ति और चार प्रकार भुक्ति क्रिया। अर्थात् चारों प्रकार के भोज्य पदार्थों का त्याग तथा चार बार भोजन करने का त्याग प्रोषधोपवास है । अर्थात् उपवास के पहले दिन और दूसरे दिन एक-एक बार और उपवास के दिन दोनों इस तरह चार बार भोजन जिस उपवास में छोड़ा जाता है वह प्रोषधोपवास है। प्रोषधोपवास तपका रूप है और तप शक्ति के अनुसार किया जाता है। मानव की शक्ति सदा एक समान नहीं रहती अवस्था के अनुसार बदल जाती है, प्रकृति भी उसे अपने प्रभाव से प्रभावित करती है। इसलिए आचार्यों ने प्रोषधोपवास, उपवास, अनुपवास और एकाशन नाम दिये हैं । इन्हें उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य इन तीन भेदों में विभक्त किया है। किन्तु केवल चारों प्रकार के आहार का त्याग या चार बार भोजन का त्याग तो एक तरह से द्रव्य उपवास है । पूज्यपाद स्वामी ने उपवास शब्द का अर्थ चार प्रकार के आहार का त्याग ही किया है। आहार का त्याग इंद्रियों को शिथिल करने के लिए ही किया जाता है। इसलिये पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है कि अपने शरीर के संस्कार के कारण स्नान, गन्ध, माला, आभरण आदि से रहित तथा आरम्भरहित श्रावक किसी अच्छे स्थान में अर्थात् साधुओं के निवास में या चैत्यालय में या अपने प्रोषधोपवासगृह में धर्म कथा के चिन्तन में मन लगाकर उपवास करे। जो उपवास करने में असमर्थ हैं उन्हें अनुपवास करना चाहिए। और जो अनुपवास भी करने में असमर्थ हैं उन्हें आचाम्ल तथा निर्विकृति आदि आहार करना
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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