________________
२४४ ]
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
टीकार्थ - सामायिक के पाँच अतिचार कहते हैं यथा - मनदुष्प्रणिधान वचनदुष्प्रणिधान, कायदुष्प्रणिधान इन तीन योगों की खोटी प्रवृत्तिरूप तीन अतिचार और अनादर तथा अस्मरण - एकाग्रता का अभाव ये सब मिलकर सामायिक के पाँच अतिचार हैं ।
विशेषार्थ - सामायिक के पांच अतिचार हैं- सामायिक में पाठ या मन्त्र का ऐसा उच्चारण करना कि कुछ भी अर्थबोध न हो सके, अशुद्ध उच्चारण करना, बचन की चपलता होना वचन दुष्प्ररिधान है। शरीर को हिलाना, डुलाना, इधर-उधर देखना, डांस-मच्छर को भगाना तथा बीच में आसन बदलना यह सब काय दुष्प्रणिधान है । सामायिक करते समय क्रोध, लोभ, द्रोह, अभिमान और ईर्ष्या आदि का होना तथा कार्यों में आसक्ति होने से मनका चंचल होना मतदुरप्रणिधान है। क्रोध आदि के आवेश से सामायिक में मनका चिरकाल तक स्थिर न रहना मनदुष्प्रणिधान है । अनुत्साह को अनादर कहते हैं । नियत समय पर सामायिक न करना या जिस किसी तरह करना और सामायिक करने के बाद तुरन्त ही खाने-पीने आदि में लग जाना, बेगार समझकर अनुत्साह से सामायिक करना अनादर है। सामायिक में एकाग्रता का न होना अथवा 'सामायिक मुझे करना चाहिए या नहीं करना चाहिए' या 'मैंने सामायिक की है कि नहीं ?' इस प्रकार प्रबल प्रमाद के कारण स्मरण न रहना, मन्त्र अथवा सामायिक पाठ आदि को भूल जाना स्मरण कहलाता है। इन सब अतिचारों को जानकर यदि कोई यह सोचे कि इससे तो अच्छा है कि सामायिक ही न की जाय तो अतिचार क्यों लगेंगे, किन्तु ऐसा विचार उचित नहीं है ।
प्रारम्भ में तो मुनियों के भी एकदेश विराधना होना सम्भव है, किन्तु इतने मात्र से सामायिकव्रत भंग नहीं होता है । 'मैं मनसे पापकर्म नहीं करूंगा' । इत्यादि प्रत्याख्यानों में किसी एक का भंग होने पर भी शेष प्रत्याख्यान रहने से सामायिक का अत्यन्ताभाव नहीं होता । अतः ये पांचों अतिचार हो हैं, व्रतभंग नहीं है । धर्मध्यान के आजाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय अथवा पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत के भेद से अनेक भेद बताये हैं उनका चिन्तन करने से भी चित्त की एकाग्रता हो जाती है । इसलिए सामायिक के साथ ध्यान का अभ्यास करना चाहिए ।। १५ ।। १०५ ॥
अथेदानीं प्रोषधोपवासलक्षणं शिक्षाव्रतं व्याचक्षाणः प्राह