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बनाना चाहिए, तथा मनको पवित्र बनाते हुए उपवास और एकाशन के दिन तो विशेषरूप से सामायिक की वृद्धि करनी चाहिये ||१०||१०० ||
इत्यंभूतं तत्कि कदाचित्परिचेतव्यमन्यथा वेत्यत्राह
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
सामायिक प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यं । व्यतपञ्चकपरिपूरण कारणमवधान युक्तेन ॥११॥
चेतथ्यं वृद्धि नेतव्यं । किं ? सामायिकं । कदा ? प्रतिदिवसमपि न पुनः कदाचित् पर्वदिवस एव । कथं ? यथावदपि प्रतिपादित स्वरूपानतिक्रमेणैव । कथंभूतेन ? अनलसेनाऽऽलस्य रहितेन उद्यतेनेत्यर्थः । तथाऽवधानयुक्तेनैकाग्रचेतसा । कुतस्तदित्थं परिचेतव्यं ? व्रतपंचकपरिपूरणकारणं यतः व्रतानां हिंसाविरत्यादीनां पंचकं तस्य परिपूरणत्वं महाव्रतरूपत्वं तस्य कारणं । यथोक्त सामायिकानुष्ठानकाले हि अणुव्रतान्यपि महाव्रतत्वं प्रतिपद्यन्तेऽतस्तत्कारणं ॥ ११ ॥
क्या सामायिक, पर्व के दिनों में ही करनी चाहिए या अन्य प्रकार की भी कुछ व्यवस्था है। यह कहते है
[ अनलसेन ] आलस्य से रहित और [ अवधानयुक्तेन ] चित्त की एकाग्रता से युक्त पुरुष के द्वारा [ व्रतपंचकपरिपूरणकारणं] हिंसा त्याग आदि पांच व्रतों की पूर्तिका कारण [ सामायिकं ] सामायिक | प्रतिदिवसमपि ] प्रतिदिन भी | यथावद् ] योग्य विधि के अनुसार [परिचेतव्यं ] बढ़ाने योग्य है ।
टोकार्थ - यहां पर यह बतला रहे हैं कि कोई यह न समझ ले कि उपवास अथवा एकाशन के दिन ही सामायिक करनी चाहिए, अन्य दिनों में नहीं । इसी का निराकरण करते हुए कहते हैं कि शास्त्रोक्त विधिका अतिक्रमण नहीं करते हुए प्रतिदिन सामायिक करनी चाहिए । सामायिक करने वाला पुरुष आलस्य रहित तथा चित्त की एकाग्रता से युक्त होना चाहिये। क्योंकि सामायिक में हिंसादि पंच पापों की निवृत्ति हो जाती है इसलिये पांचों व्रतों की परिपूर्णता स्वरूप सामायिक के काल में अणुव्रत भी महाव्रतरूपता के कारण हैं ।
विशेषार्थ सामायिक नियतरूप से आलस्य छोड़कर प्रतिदिन करनी चाहिए । सामायिक में चारों दिशाओं में आवर्त और शिरोनति करना चाहिए | कुछ लोग