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________________ २३० ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार बैठायी जा सकती है । सामायिक में भी अमुक समय तक पांचों पापों का सर्वथा त्याग रहता है। प्रोषधोपवास में समय की मर्यादा बढ़ जाती है। इस तरह ये सब वत अणवतों को संकुचित करके उसे महावत का रूप देते हैं। शिक्षावतों से तो मुनिपद धारण करने की शिक्षा मिलती है। सामायिक से ध्यान करने की, प्रोषधोपबास से उपवास करने की, भोगोषभोग परिमाण से अल्प भोगोपभोग की तथा अन्त के अतिथिसंविभागवत से आहार ग्रहण करने की शिक्षा मिलती है । सोमदेवसूरि ने इसका स्वरूप बतलाते हुए कहा है-कि इस प्रकार दिशाओं का और देश का नियम करने से बाहर की वस्तुनों में लोभ, उपभोग, हिसा आदि भाव नहीं होते और उनके नहीं होने से चित्त संयत रहता है । जो गृहस्थ इन गुणवतों का पालन प्रयत्नपूर्वक करता है वह जहां-जहां जन्म लेता है वहीं उसे आज्ञा ऐश्वर्य आदि मिलते हैं ।।५।१६५।। इदानीं तदतिचारान्दर्शयन्नाहप्रेषणशब्दानयनं रूपाभिव्यक्ति पुद्गलक्षेपौ । देशावकाशिकस्य व्यपविश्यन्तेत्ययाः पञ्च ॥६॥ अत्यया अतिचारा: । पंच व्यपदिश्यन्ते कथ्यन्ते । के ते ? इत्याह-प्रेषणेत्यादि मर्यादीकृते देशे स्वयं स्थितस्य ततो बहिरिदं कुर्विति विनियोगः प्रेषणं । मर्यादीकृतदेशाद् बहियापारं कुर्वतः कर्मकरान् प्रतिखात्करणादिः शब्दः । तद्देशाबहिः प्रयोजनबशादिदमानयेत्याज्ञापनमानयनं । मर्यादीकृतदेशे स्थितस्य बहिर्देशे कर्म कुर्वतां कर्मकरणां स्वविग्रहप्रदर्शनं रूपाभिव्यक्तिः । तेषामेव लोष्ठादिनिपातः पुद्गलक्षेपः ।।६।। अब देशावकाशिकवृत के अतिचार दिखलाते हुए कहते हैं ( प्रेषणशब्दानयनं ) प्रेषण, शब्द, आनयन ( रूपाभिव्यक्तिपुद्गलक्षेपो) रूपाभिव्यक्ति और पुद्गलक्षेप ये ( पञ्च ) पांच ( देशाबकाशिकस्य ) देशावकाशिक शिक्षाबूत के (अत्ययाः) अतिचार (ध्यपदिश्यन्ते) कहे जाते हैं ।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
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