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रत्नकरण्ड श्रावकाचार एक पक्ष, [च] और [ऋक्षं] एक नक्षत्र को, [देशाबकाशिक स्य] देशावकाशिकवत की [कालावधि] काल की मर्यादा [प्राहुः] कहते हैं ।
टोकार्थ – देशाबकाशिकबत में काल की मर्यादा बतलाते हुए गणधरदेवादिक ने एक वर्ष, एक ऋतु, एक अयन, एक मास, चार मास, एक पक्ष अथवा एक नक्षत्र को काल की अवधि कहा है अर्थात् इस प्रकार देशावकाशिकव्रत में आने-जाने की काल-मर्यादा की जाती है, ऐसा कहा है ।
ऋक्ष-नक्षत्र दो प्रकार के होते हैं-चन्द्रभक्ति की अपेक्षा और आदित्यभुक्ति की अपेक्षा । चन्द्रभुक्ति की अपेक्षा अश्विनी, भरणी आदि नक्षत्र प्रतिदिन बदलते हैं। अर्थात एक दिन में एक नक्षत्र रहता है । और सूर्य भुक्ति की अपेक्षा एक वर्ष में अश्विनी आदि सत्ताईस नक्षत्र क्रम से परिवर्तित होते हैं।
विशेषार्थ- देशावकाशिकनत में क्षेत्र की अवधि को तो बतला दिया । अब काल की अवधि को बतलाते हैं ।
'मैं इस स्थान पर अमुक घर पर्वत या गांव आदि की सीमा तक इतने काल तक ठहरूगा' ऐसा संकल्प करके मर्यादा के बाहर की तृष्णा को रोककर सन्तोषपूर्वक सहारने वाला श्रावक देशावकाशिकायत का धारी होता है । काल की मर्यादा में जैसेएक वर्ष तक, अथवा ऋतु-दो माह तक, एक अयन-छह माह तक, एक माह तक, चार माह तक, एक पक्ष तक अथवा अमुक नक्षत्र तक, इस स्थान से आगे नहीं जाऊंगा, इस प्रकार देशावकाशिकी समय की मर्यादा निश्चित करे । दिग्बत जीवनपर्यंत के लिए होता है, किन्तु देशावकाशिक काल की मर्यादा लेकर होता है । मर्यादा के बाहर स्थूल
और सूक्ष्म पांचों पापों का त्याग हो जाने से देशावकाशिक के द्वारा महायतों की सिद्धि होती है । पं आशाधरजी ने लिखा है-यह व्रत शिक्षाप्रधान होने से तथा परिमित काल के लिए होने से इसे शिक्षाबत कहा है । तत्त्वार्थसूत्र आदि में जो इसे मुणव्रत कहा है वह दिग्बत को संक्षिप्त करने वाला होने मात्र की विवक्षा लेकर कहा है। अमत चन्द्राचार्य ने कहा है—दिग्नत में भी ग्राम, भवन, मोहल्ला आदि का कुछ समय के लिए परिमाण करना देशविरतित है। जिस प्रकार दिग्बत को परिमित करके देशनती बना, इसी तरह अन्य गुणवतों को भी संक्षेप करने का उपलक्षण होना चाहिए ।। ४ ।। ६४ ॥