________________
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
का मूल ममत्वभाव है। इसलिए उसमें कमी करके बाह्यपरिग्रह को कम करना परिग्रह परिमाणवत है। इसी कारण से स्वामी समन्तभद्र ने इस व्रत का दूसरा नाम इच्छापरिमाणवत दिया है। उन्होंने धन-धान्यादि का परिमाण करके उससे अधिक की इच्छा न करने को परिग्रह परिमाणवत कहा है । और उसका दूसरा नाम इच्छापरिमाण कहा है। क्योंकि इच्छा का परिमाण करके ही परिग्रह का परिमाण किया जाता है। यदि इच्छाओं की सीमा न हो तो परिग्रह का परिमाण करना व्यर्थ ही है। मनुष्य की तृष्णा को कम करने के लिए ही यह व्रत है ऐसा अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है-बाह्यपरिग्रह से भी अनुचित असंयम होता है इसलिए समस्त सचित्त और अचित्त परिग्रह छोड़ना चाहिए । जो धन-धान्य, मकान मनुष्य आदि छोड़ने में अशक्य है, उसे भी कम तो करना ही चाहिए। क्योंकि तत्त्व तो निवृत्तिरूप है।
श्रावक देश, काल, आत्मा, स्वयं और जाति आदि की अपेक्षा परिग्रहविषयक तृष्णा को सन्तोष की भावना के द्वारा रोककर मकान, खेत, धन, धान्य, दासी-दास, पशु, शय्यासन, सवारी, कुप्य और भाण्ड इन दस प्रकार के परिग्रहों का जीवन पर्यन्त के लिए परिमाण करे। तथा किये हुए परिमाण वाले परिग्रह को भी निष्परिग्रह की भावना से उत्पन्न हुई अपनी शक्ति के अनुसार पुनः कम करे। परिग्रह परिमाण करते समय श्रावक को अपने परिवार, उसके रहन-सहन तथा देश-काल और जाति का ध्यान रखकर ही परिमाण करना चाहिए जिससे आगे निर्वाह होने में कोई कठिनाई उपस्थित न हो।
परिग्रह के दोष-जैसे रात्रि अन्धकार का कारण है, वैसे ही परिग्रह अविश्वास का कारण है । परिग्रही व्यक्ति किसी का भी विश्वास नहीं करता । रात्रि में सोता नहीं और दिन में भी सशंक रहता है कि कोई मेरा धन न हर ले, तथा जैसे आग में घी डालने से आग प्रज्वलित सन्ताप देने वाली होती है तथा जैसे समुद्र में मगरमच्छ रहते हैं वैसे ही परिग्रह होने से मनुष्य खूब रोजगार धन्धा फैलाता है । उसकी कभी तृप्ति नहीं होती। ऐसे परिग्रह को लोग अच्छा मानते हैं, यही आश्चर्य है । कहा है-परिग्रह का फल असन्तोष, अविश्वास, आरम्भ और ममत्व है जो दुःख का कारण है इसलिए परिग्रह का नियन्त्रण करना चाहिए ॥१५॥६१।।
तस्यातिचारानाह