SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ ] रत्नकरण्ड धावकाचार भेद को छोड़ दिया है। सोमदेव प्राचार्य ने मंत्रभेद परिवाद, पशुन्य और कूटलेख के साथ झूठी गवाही को भी अलग से अतिचार माना है। इन्होंने न्यासापहार को नहीं कहा है। जिसने स्थूलझूठ को न बोलने का व्रत लिया है उसे ये पांच बातें छोड़नी चाहिए। यदि किसी को अभ्युदय और मोक्ष की कारणभूत विशेष क्रियाओं में सन्देह हो और वह पूछे तो अज्ञानवश या अन्य किसी अभिप्रायवश अन्यथा बतला देना अथवा जिसने सत्य बोलने का व्रत लिया है वह यदि परको पीड़ा पहुँचाने वाले वचन बोलता है तो ऐसे वचन असत्य ही हैं । प्रमादवश परपीड़ाकारी उपदेश देता हो तो वह अतिचार है । जैसे-घोड़ों और ऊँटों को लादो, चोरों को मारो इत्यादि निष्प्रयोजन वचन मिथ्योपदेश है । रहोभ्याख्यान 'रह' अर्थात् एकान्त में स्त्री-पुरुष के द्वारा की गई विशेष क्रिया को 'अभ्याख्या' अर्थात् प्रकट कर देना जिससे दम्पती में था अन्य पुरुष और स्त्री में विशेष राग उत्पन्न हो किन्तु यदि ऐसा हँसी या कौतुकवश किया जावे तभी अतिचार है। यदि किसी प्रकार के आग्रहवश ऐसा किया जाता है तो व्रतका ही भंग होता है । कटलेखक्रिया-दूसरे ने वैसा न तो कहा और न किया, फिर भी ठगने के अभिप्राय से किसी के दबाव में आकर इसने ऐसा किया या कहा इस प्रकार के लेखन को कूटलेखक्रिया कहते हैं । अन्यमत से दूसरे के हस्ताक्षर बनाना, जाली मोहर बनाना कूटलेख है। न्यासापहार-कोई व्यक्ति धरोहर रख गया, किन्तु उसकी संख्या भूल गया और भूल से जितना द्रव्य रखा गया था उससे कम मांगा तो हाँ इतनी ही है ऐसा कहना, इसे न्यासापहार कहते हैं। अन्य ग्रन्थों में इसे न्यस्तशिविस्मर्षनज्ञा नाम दिया है । मन्त्र भेद-अंगविकार तथा भ्रकुटियों के संचालन से दूसरे के अभिप्राय को जानकर ईविश प्रकट करना, अथवा विश्वासी मित्रों आदि के द्वारा अपने साथ विचार किये गये किसी शर्मनाक विचार का प्रकट कर देना । ये सत्याणवत के पाँच अतिचार हैं । सत्यव्रत की रक्षा के लिये तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'क्रोधलोभभीरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च' अर्थात् क्रोध का त्याग, लोभ का त्याग, भीरुत्व का त्याग, हास्य का त्याग और अनुवीचिभाषण-आगमानुकूल भाषण ये पांच भावनाएँ बतलाई हैं। इनके द्वारा ही सत्यव्रत की रक्षा हो सकती है, अन्यथा नहीं । असत्य, कषाय या अज्ञानता के कारण बोला जाता है। कषायनिमित्तक असत्य से बचने के लिये क्रोध, लोभ, भय और हास्य का त्याग कराया है, क्योंकि ये चारों ही कषाय के रूप हैं ।
SR No.090397
Book TitleRatnakarand Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorAadimati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy