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________________ ( पचीस ) २७ शांतिनाथ पुराण (३०६५) यह ठाकुर कवि को रचना है जिसकी जानकारी हमें प्रथम बार शान्ति पर यह पुराण सर्वाधिक प्राचीन कृति है जिसका रचनाकाल संवत् मात्र पाण्डुलिपि अजमेर के भट्टारकीय शास्त्र भण्डार में संग्रहीत है। २८ कान्तिपुराण (३०६४) प्राप्त हुई है। हिन्दी भाषा में १६५२ है । इस पुराण की एक महापंडित प्राणावर विरचित शास्त्रिपुराण संस्कृत का अच्छा काव्य है । कवि ने इसकी प्रशस्ति मैं अपना विस्तृत परिचय दिया है। श्री नाथूराम प्रेमी ने प्राणाधर की जिन रचनाओं के नाम गिनाये हैं उसमें इस पुराण का नाम नहीं लिया गया है। इसकी एक प्रति जयपुर के दि० जैन मन्दिर लश्कर में संग्रहीत है। पुराण प्रकाशन योग्य है । काव्य एवं परिश्र २६ जीवनभर चरित (३३५६) महाकवि बोलतराम कासलीवाल की पहिले जिन कृतियों एवं काव्योंका उल्लेख मिलता था उनमें जीवन्वर चरित का नाम नहीं था | उदयपुर के मनवाल दि० जैन मन्दिर में जब हम लोग ग्रंथों की सूची का कार्य कर रहे थे। तभी इसकी एक प्रस्त व्यस्त प्रति पं० अनुपचंद जो न्यायतीचं को प्राप्त हुई । कवि का यह एक हिन्दी का घच्छा काव्य है जो पांच अध्यायों में विभक्त है । कवि ने अपने इस काव्य को नवरस पूर्ण कहा है जिसे कालाडेरा के श्री चतुरसुज भप्रवाश एवं पृथ्वीराज तथा सागवाडा के निवासी श्रीवेलजी हूं वह के अनुरोध पर उदयपुर प्रवास में संवत् १८०५ लिखकर मां भारती को भेंट की थी। उदयपुर में भरवाल दि० जैन मन्दिर के शास्त्र मण्डार में जो प्रति प्राप्त हुई थी, वह कवि को मूल पांडुलिपि है जिससे इसका महत्व और भी बढ गया है । काव्य प्रकाशन होने योग्य है । ३० जीवंषर चरित (३३५८) | महाकवि रद्द द्वारा विरचित जीवन्धर चरित अपभ्रंश को विशिष्ट रचना है। इस काव्य की एक प्रति दि० जैन मन्दिर फतेहपुर शेखावाटी के गास्त्र भण्डार में संग्रहीत है । पाण्डुलिपि प्राचीन है और संवद १९५८ में मिमि बद्ध की हुई है। यह काव्य प्रकाशन योग्य है । ११ जीवनपर चरित्र प्रबन्ध (३३६० ) जीवन्धर चरित्र हिन्दी भाषा का प्रवन्ध काव्य है जिसे भट्टारक यश कीर्ति ने छन्दोबद्ध किया था यतः कीर्ति भट्टारक चन्द्रकीति के प्रशिष्य एवं भट्टारक रामकीति के शिष्य थे। ये हिन्दी के अच्छे विद्वान थे। प्रस्तुत काव्य हिन्दी को कोई बडा काव्य नहीं है किन्तु भाषा एवं शैली की दृष्टि से काव्य उल्लेखनीय है । इसकी एक पाण्डुलिपि उदयपुर के संभवनाथ मन्दिर के शास्त्र भण्डार में संग्रहीत । इसकी रचना संवत् १८७१ में हुई थी। कवि ने गुजरात देश के ईश्वर दुर्ग के पास भोलोडा ग्राम में इसे समाप्त किया था। उस ग्राम में चन्द्रप्रभ स्वामी का मन्दिर था श्रीर वही इस प्रबन्ध का रचना स्थल था।
SR No.090396
Book TitleRajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal, Anupchand
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages1446
LanguageHindi
ClassificationCatalogue, Literature, Biography, & Catalogue
File Size30 MB
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