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मुटका-सग्रह
इति हरचरणदास कसा दिहारी रचिन सप्तशती टीका हरिप्रकाशाख्या' सम्पूर्णा | संवत् १८५२ माघ कृष्ण ७ रविवासरे शुभमस्तु ।
२. कबिवल्लभ--प्रशिकार हरिचरणदास । पथ सं० १३१-१७७ | भाषा-हिन्दी पद्यः,
विदोष-१७ सक पद्य हैं। प्रागे वे. पय नहीं हैं।
प्रारम्भ
मोहन चरम पयोग में, है तुलसी को बास । ताहि मुमरि हरि नाब. कर दिए दो नाम ॥१॥ धानन्द को कन्द वृषभान जाको मुखचन्द, लीलाही ते मोहन के मानस को चोर है।
कवित
दुजो तसो रचिव को चाहत विरंचि निति,
समि को बनावे प्रजो मन कौन मोर है।
फेरत है सान मासमान पे चढाय फेरि,
पानि चढाय वे को वारिधि में वोरै है। राधिका के प्रानन के बोट न दिलोके विधि,
ट्रक ट्रक तोरै पुनि टूक दक जोर है। अध दोष लक्षण दोहा
रस आनन्द सरूप नौं दुर्षे ते है दोष ।
मात्मा को ज्यो अंधता और बधिरता रोष ॥३॥ मन्तिम भागदोहा
साका सतरह सौ पुनी संवत् पैतीस जान ।
अठारह सो जेठ बुदि ने ससि रवि दिन प्रात ।।२८४॥ इति श्री हरिचरणजी विरचित कविवल्लभो ग्रन्थ सम्पूर्ण । स० १८५२ माघ बूष्णा १४ रविवासरे।
५६०६. गुटका सं० २२६ । पत्र सं० १०० | मा० ६३४६६च | भाषा- हिन्दी | ले. काल १८२५ जेठ वुदा १५ । पूर्ण १. सप्तभंगीवाणी
भगवतीदास
हिन्दी २. समयसारनाटक
बनारसीदास ५६१८, गुटका सं० २२७ 1 पत्र सं० २६ । प्रा. Ex५ । भाषा - हिन्दी । विषम-आयुर्वेद । ले. काल सं० १८४७ अषाढ बुदो ।
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