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________________ गुटका-संग्रह . । ६५६ हो क्षएक बयण अवधारि, हवि चाल्यो तुम भवपारि । हो सुभट कहु तुझ भेउ, धरी समकित पालन एह ।। २।। हृवि जिनवरदेव पाराहि, तू सिघ समरि मन मांहि । सुरिण जीव दया धुरि धर्म, हवि छांडि अनुए कर्म ॥ ३ ॥ मिथ्यात कु संका दालो, गणगुरु वनि पालो। हवि भान धरै मन धीर, ल्यो संजम दोहोलो वीर ॥४॥ उपप्राचित करि ब्रत सुधि, मन बचन काय निरोधि । नू कोध मान माया छांडि, मापुरग सू सिलि मांडि ॥ ५ ॥ हनि क्षमो क्षमावो सार, जिम पामो सुख भण्डार । तु मंत्र समरे नबकार, धोए तन करे भवनार ॥६॥ हवि सवे परिसह जिपि, प्रभंतर ध्यान दीपि । वैराग्य धरै मन माहि, मन मांकड़ गाढ़ साहि ॥ ७ ॥ सुरिण देह भोय सार, भबलधो वयम मा हार । हवि भोजन पांणि छांडि, मन लेई भ्रगति मांडि ॥ ८ ॥ हथियुस्पक्षरण षुटि मायु, मनासि यांडो काय। इंद्रीय वस करि धीर, कुटंब मोह मेल्हे वीर ॥ ६ ॥ हवि मन गन माधु बांधे, न मरण समाधि साधि । जे साधो मरण सुनेह, नेया स्वर्ग सुगतिय भरणेम ।। १० ॥ अन्तिम भाग हवि हंइटि जाणि विचार, वाणु कहिइ किहि सु अपार । लिया मणसरण दौख्या जाण, सन्यास छोड़ो प्राण ॥ ५३॥ सन्यास वरणां फल जोर, स्वर्ग सुद्धि फलि सुख होइ। बलि श्रावक कोल पामीइ, लही निर्माण मुगती गामीइ ।। ५४ ॥ जे भरिग सूणिन नरनारी, ते जाइ मववि पारि। श्री विमलेन्द्रकीति कहो विचार, पाराधना प्रतियोधसार ।। ५५ ।। इति श्री माराधना प्रतिवोध समाप्त
SR No.090395
Book TitleRajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal, Anupchand
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages1007
LanguageHindi
ClassificationCatalogue, Literature, Biography, & Catalogue
File Size19 MB
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