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गुटका-संग्रह .
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हो क्षएक बयण अवधारि, हवि चाल्यो तुम भवपारि । हो सुभट कहु तुझ भेउ, धरी समकित पालन एह ।। २।। हृवि जिनवरदेव पाराहि, तू सिघ समरि मन मांहि । सुरिण जीव दया धुरि धर्म, हवि छांडि अनुए कर्म ॥ ३ ॥ मिथ्यात कु संका दालो, गणगुरु वनि पालो। हवि भान धरै मन धीर, ल्यो संजम दोहोलो वीर ॥४॥ उपप्राचित करि ब्रत सुधि, मन बचन काय निरोधि । नू कोध मान माया छांडि, मापुरग सू सिलि मांडि ॥ ५ ॥ हनि क्षमो क्षमावो सार, जिम पामो सुख भण्डार । तु मंत्र समरे नबकार, धोए तन करे भवनार ॥६॥ हवि सवे परिसह जिपि, प्रभंतर ध्यान दीपि । वैराग्य धरै मन माहि, मन मांकड़ गाढ़ साहि ॥ ७ ॥ सुरिण देह भोय सार, भबलधो वयम मा हार । हवि भोजन पांणि छांडि, मन लेई भ्रगति मांडि ॥ ८ ॥ हथियुस्पक्षरण षुटि मायु, मनासि यांडो काय। इंद्रीय वस करि धीर, कुटंब मोह मेल्हे वीर ॥ ६ ॥ हवि मन गन माधु बांधे, न मरण समाधि साधि । जे साधो मरण सुनेह, नेया स्वर्ग सुगतिय भरणेम ।। १० ॥
अन्तिम भाग
हवि हंइटि जाणि विचार, वाणु कहिइ किहि सु अपार । लिया मणसरण दौख्या जाण, सन्यास छोड़ो प्राण ॥ ५३॥ सन्यास वरणां फल जोर, स्वर्ग सुद्धि फलि सुख होइ। बलि श्रावक कोल पामीइ, लही निर्माण मुगती गामीइ ।। ५४ ॥ जे भरिग सूणिन नरनारी, ते जाइ मववि पारि।
श्री विमलेन्द्रकीति कहो विचार, पाराधना प्रतियोधसार ।। ५५ ।।
इति श्री माराधना प्रतिवोध समाप्त