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गुटका-संग्रह ] १०८. पार्श्वनाथ के दर्शन
[६२५ रसं. १७६८
वृन्दावन
हिन्दी
१०६. प्रभुजी मैं तुम परणकारण गह्मो
बालचन्द
५४३५. गुटका सं०५४ । पत्र सं० ८८ | श्रा० ८४६ इञ्च । अपूर्ण । दशा-सामान्य ।
विशेष—इस गुटके में पृष्ठ ६४ तक पण्डिताचार्य धर्मदेव विरचित महाशांतिक पूजा विधान है । ६५ में ८१ तक अन्य प्रतिष्ठा रान्बन्धी पूजाएं, एवं विधान है। पत्र ६२ पर अपभ्रंश में चौबीस तीर्थङ्कर स्तुति है । पत्र ८५. पर राजस्थानी भाषा में २ मन रमि रह चरणजिनन्द' नामक एक बड़ा ही सुन्दर पद है जो नीचे उद्धत किया जाता है।
रे मन रमिरहु चरण जिनन्द । रे मन रमिरह वरणजिनन्द !)ढाला। जह पठावहि तिहुवरण इदं ।। रे मनः ।। यह सार अत्तार युरो चिफ जिय धम्मु दयालं । परगम तच्नु मुरगहि परमेट्ठिहि सुमरीह अप्पु गुणालं ॥ रे मनः ॥ १ ॥ जीउ अमीउ दुविहु पुरणु पासव बन्धु मुहि चउभेये । संवरु निजम मोखु वियाणहि पुग्णपाप सुविणेयं ।। रे मन० ॥ १ ॥ जीउ दुभेउ मुक्त संसारी मुक्त सिद्ध सुवियाणे । बसु गुण जुत्त कलङ्क विवजिद भासिये केवलणारखे ॥रे मन० ॥ ३॥ जे संसारि भमहि जिय संबुल लस जोरिण चउरासी । थावर दिलिदिम सलिदिय. ते पुग्गल सहवासी ॥ ₹ मन० ॥ ४॥ पंच अजीव पढ़यम् तहि पुगनु, धम्मु अधम्मु मागास । कालु प्रकाउ पंच कामासी, ऐच्छह दव्य पयास ॥रे मन० ॥५॥ प्रासउ दुविहु दम्वभावह, पुणु पंच पयार जिगृतं । मिच्छा विरय पमाय फसायहं जोगह जीष प्रमुत्तं ।। रे मनः ॥ ६ ॥ नारि पयार बन्धु पयड़िय हिदि तह भरणभाव पयूसं । जोगा पडि पयूसठिदायरणु भाव कसाय विसेसं ॥ रे मनः ॥ ७॥ मुह परिणाम होइ सुहासउ, प्रसुहि असुह बियाणे । सुह परिणाम करहु हो भवियह, जिम सुहु होम नियाणे ॥रे मन० ।। ८ ।।