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भाषा में ही मिलती हैं जिनकी संख्या २० से भी अधिक है। कवि १५ वीं शताब्दी के विद्वान थे और मध्यप्रदेश-ग्वालियर के रहने वाले थे । चारह भावना कवि की एक मात्र रचना है जो हिन्दी में लिखी
हुई मिली है लेकिन इसकी भाषा पर भी अपभ्रश का प्रभाव है । रचना में ३६ पद्य हैं। रचना के • अन्त में कवि ने ज्ञान की अगाधता के बारे में बहुत सुन्दर शब्दों में कहा है:
कथम कहाणी ज्ञान की, कहन सुनन की नाहि । आपन्ही मैं पाइए, जब देखै घट मांहि ॥
रचना के कुछ सुन्दर पञ्च निन्न प्रकार हैसंसार रूप कोई वस्तु नाही, भेदभाव अज्ञान । ज्ञान दृष्टि धरि देस्मिए, सब ही सिद्ध समान ||
धर्म करावौ धरम करि, किरिया धरम न होय । धरम जुजानत वस्तु है, जो पहचान कोय ॥
करन करावन ग्यान नहि, पढ़ि अर्थ घरखानत और 1 ग्यान दिष्ठि विन ऊपज, मोहा तणी हु कोर ।।
रचना में राधू का नाम कहीं नहीं दिया है केवल प्रथ समाप्ति पर "इति श्री रइधू कृत बारह भावना संपूर्ण" लिखा हुआ है जिससे इसको रइधू कृत लिखा गया है। २८ भुवनकीर्ति गीत
भुवनकीर्ति भट्टारक सकलकीर्ति के शिष्य थे और उनकी मृत्यु के पश्चात् ये ही भट्टारक की गद्दी पर बैठे। राजस्थान के शास्त्र भंडारों में भट्टारकों के सम्बन्ध में कितने ही गीत मिले हैं इनमें बूवराज एवं भ० शुभचन्द द्वारा लिखे हुये गीत प्रमुख हैं । इस गीत में बूचराज ने भट्टारक भुवनकीर्ति की तपस्या एवं उनकी यहुश्रु तता के सम्बन्ध में गुणानुवाद किया गया है। गीत ऐतिहासिक है तथा इससे मुवन कीति के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है । चूचराज १६ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वान' थे इनके द्वारा रची हुई अबतक पांच और रचनाएं मिल चुकी हैं । पूरा गीत अधिकल रूप से सूची के पृष्ठ ६६६-६६७ पर दिया हुआ है। २६ भूपालचतुर्विंशतिस्तोत्रटीका
महा पं० आशाधर १३ वीं शताब्दी के संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान थे । इनके द्वारा लिखे गये कितने ही प्रथ मिलते हैं जो जैन समाज में बड़े ही श्रादर की दृष्टि से पढ़े जाते हैं । आपकी भूपाल चतुर्विशतिस्तोत्र की संस्कृत टीका कुछ समय पूर्व तक अप्राप्य थी लेकिन अब इसकी २ प्रतियां जयपुर के अ भंडार में उपलब्ध हो चुकी हैं । आशाधर ने इसकी टीका अपने प्रिय शिष्य विनयचन्द्र के लिये १ विस्तृत परिचय के लिए देखिये डा० कासलीवाल द्वारा लिखित वचराज एवं उनका साहित्य-जन सन्देश शोधांक-११