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________________ १५८] [ पुराण साहित्य १६६०. हरिवंशपुराणभाषा- खुशालचन्द्र । पत्र सं० २०७ । ० १४९७ इञ्च भाषा - हिन्दी विषय-पुराण २० काल सं० १७८० वैशाख सुदी ३ ले काल सं० १८६० पूर्ण । ० सं० ३७२ । श्र भण्डार । छ भण्डार । विशेष है। १६६१. प्रति सं० २ । सं० २०२ । ० काल सं० १८०५ पौध बुदी अपूर्ण वे० सं० १५४ । ८ विशेष - १ से १७२ तक पत्र नहीं हैं। जयपुर में प्रतिलिपि हुई थी । १६६२. प्रति सं० ३ | पत्र सं० २३४ । ले० काल X | ० सं० ४६६ । व्य भण्डार । विशेष --- प्रारम्भ के ४ पत्रों में मनोहरदास कृत नरक दुख वर्णन है पर अपूर्ण है । १६६३. हरिबंशपुराणभाषा पत्र सं० १५० । ० १२४५३ । भाषा - हिन्दी | विषय पुराण । १० काल X | ले० काल X। अपू । वे० सं० २०७ । ङ भण्डार । विशेष एक अपूर्ण प्रति । (सं० ६०८ और है। १६६४. हरिवंशपुराणभाषा ....... | पत्र सं० ३८१०८३४४२ च । भाषा - हिन्दी गद्य ( राजस्थानी ) | विषय - पुराण । २० काल x | ले० काल सं० १६७१ असोज बुदी पूर्ण । ० सं० १०२२ । म अ भण्डार । विशेष – प्रथम तथा अन्तिम पत्र फटा हुआ है । श्रदिभाग--अथ कथा सम्बन्ध लीखीयइ छई । तेणं कारणं तेणं समएवं समरणी भगवंत महावीरे रायगेहे समोसरीये तेहीज काल, तेही ज समउ, ते भगवंत श्री वीर व मानं राजग्रही नगरी भावी समोसा । ते किसा छड़ वीतराग चतोस प्रतिसइ करी सहित, परंतीस वचन वारणी करी सोभित, चउदसह साध छतीस सहस परवया । अनेक भाविक जीव प्रतिबोधता श्री राजग्रही नगरी आवी समोसरया । तिवारई वनमाली श्रावी राजा श्री सेणिक कनह । वारणी दिधी । सामी आज श्री वर्द्धमान मात्री समोसरथा छइ । सेणीक ते बात सांभली नई बधामणी श्रापी । राजा आपण महाहवत कउ वांदवांनी सामग्री करावर लाभ। ते कि सामां गलीसां" । कीउ । पछि श्रानंद भेरि उछली जय जयकार वद यज । भवीक लोक सघलाइ प्रानंद परियया । धन धन कहतां लोक सबलाई वांदिवा चाल्या । पछइ राजा एक सिवाक हस्ती सिणगारी उपरि छइ । मायई सेत छत्र धराप । उभइ पास चामर ढालइ | बंदी ज कई वार करइ छई | मंगिया जरा वडिद बोलइ छ । पांच शब्द बाजिय बाजते । चतुरंगिनी सेना सजकरी । राय रांगा मंडलीक मुकबधनी सामंत चउरासिया ......। एक अन्य उदाहरण- पत्र १६८ ती सध्या न हेमरथ राजा राज पाले दई । तेह राजा नइ धारणी राखी छ । तेह नउ भाव धर्म उरई । तेनी कुषि ते कुंमर पराइ ठानी। तेह नउ नाम बुधुकीत जाणिव ते पुरणु कुमर जाये सिस समान घई । इम करता ते कुंमर जोबन भरिया । तिवार पिताई तेह नई राज भार थाप्यज तिवारई तेग जाना सुख भोगता काल यतिक्रमदं वह । वली जिस न धर्मं घर कर छइ । Y
SR No.090395
Book TitleRajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal, Anupchand
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages1007
LanguageHindi
ClassificationCatalogue, Literature, Biography, & Catalogue
File Size19 MB
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