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________________ पत्र एवं पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ ८५४२५ ८६४८ पद्य पथ श्रा भल ७७ ७४२१ EX१५ . १७८८ १७६५ लेखनकालx लेखनकाल-सं० १८०६ फागुण बुदी १३ रचन रचना प्रारंभिक पाठ के चौथे पद्य से आगे निम्न पद्य और पढ़ेंअंतर नाही सोस्दै बाय, समरस आनंद सहज समाय । विस्त्र चक में चित न होय, पंडित नाम कहावै सोय ॥ ५ ॥ जब वर खेमचन्द गुरदीयो, तब श्रारंभ प्रथ को कीयो । यह प्रबोध उतपन्यो श्राय, अंधकार तिहि घाल्यो स्वाय ।। ६ ।। भीतर बाहर कदि समुभाव, सोई चतुर ता कहि आवै । जो या रस का भेदी होय, या में खोज पाच सोइ ।। ७ ।। मथुरादास नाम विस्तार चो, देवीदास पिना को धार यो। __ अंतर वेद देस में रहे, तीजै नाम मल्ह कवि कहै ।। ८ ।। ताहि सुनत अद्भुति रुचि भई, निहचे मन की दुविधा गई। __ जितने पुस्तक पृथ्वी आंहि, यह श्री कथा सिरोमणि ताहि ॥ ६ ।। यह निज बात जानीयो सही, प. प्रगट मल कवि कही। पोथी एक कहुं ते आनि, ज्यो उहां त्यों इहां राखी जानि ||१०॥ सोरह से संबत जब लागा, तामहि वरष एक अद्ध भागा। कार्तिक कृष्ण पक्ष द्वादसी, ता दिन कथा जु मन में बसी ।।११।। जो हमें कृष्ण भक्ति नित करों, वासुदेव गुरु मन में धरौं । तो यह मो झं ज्यौं जिसी, कृष्ण भट्ट भाषी है तिसी ॥१२॥ ॥दोहा॥ मथुरादास विलाम इहि, जो रमि जाने कोय । इहि रस येथे मल्ह कहि, बहुर नि उलटै सोय ॥१३|| जब निसु चन्द्र अकासे होइ, सब जो तिमिर न देखे कोड। तैसे हि शाम चन्द्र परकास, ज्यौं अज्ञान अंध्यारो नास ॥१४|| परमात्म परगट है जाहि, मानौ इहै महादेव आहि ।। ग्यान नेत्र तीजे जय होई, मृगतृष्णा देखें जगु सोई ।।१५।।
SR No.090394
Book TitleRajasthan ke Jain Shastra Bhandaronki Granth Soochi Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand Kasliwal, Anupchand
PublisherPrabandh Karini Committee Jaipur
Publication Year
Total Pages413
LanguageHindi
ClassificationCatalogue, Literature, Biography, & Catalogue
File Size8 MB
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