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गुजराती का प्रभाव है । कवि की एक और रचना आषाढाभूतिस्वाध्याय पहिले हो मिल चुकी है। जो गुजराती में है ।
२६. छत्रि कमनामर
footer द्वारा लिखित 'ग्यारह प्रतिमा वर्णन' अपभ्रंश भाषा का एक गीत है । कनकामर कौनसे शताब्दी के कवि थे यह तो इस रचना के आधार से निश्चित नहीं होता है। किन्तु इतना अवश्य है कि वे १६ वीं या इससे भी पूर्व की शताब्दी के थे । गीत में १२ मतिमाओंों का वर्णन है जिसका प्रथम पद्म निम्न प्रकार है ।
मुनिवर जंपर मृगनयणी, अंसु जल्लोलीइय गिरवयशी । नवनीलो पलको मल नयी पहु कणयंवर भाभि पई । किम्म शह सम्म सित्रपुर र+मशी, मुनिवर जंप मृगनयशी || १ ||
१२. कुलभद्र
सारसमुच्चय प्रन्थ के रचयिता श्री कुजभद्र किस शताब्दी तथा किस प्रान्त के थे इसके विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता । किन्तु इतना अवश्य है कि वे १६ वीं शताब्दी के पूर्व के विद्वान थे। क्योंकि सारसमुच्चय की एक प्रति संवत् १५४५ में लिखी हुई बधीचन्दजी के मन्दिर के शास्त्र भण्डार के संग्रह में है। रचना छोटी ही है जिसमें ३३ : लोक हैं । प्रन्थ का दूसरा नाम बन्थसारसमुचय भी है। अन्थ की भाष सरल एवं ललित है।
१३. किशन सिंह
ये सवाईमाधोपुर प्रान्त के दामपुरा गांव के रहने वाले थे। खरडेलजाति में उत्पन्न हुये थे तथा पाटणी इनका गोत्र था। इनके पिता का नाम 'काना' था। ये दो भाई थे । इनसे बड़े भाई का नाम सुखदेव था। अपने गांव को छोड़कर ये सांगानेर आकर रहने लगे थे, जो बहुत समय तक जैन साहित्यिकों का केन्द्र रहा है। इन्होंने अपनी सभी रचनायें हिन्दी भाषा में लिखी है। जिनकी संख्या १५ से भी अधिक है । मुख्य रचनाओं में क्रियाकोशभाषा, (९०८४) पुण्याभवकथाकोश (१७७२) भद्रबाहुचरित भाषा (१७८०) एवं बावनी आदि हैं ।
१४. केशरीसिंह
पं० केशरीसिंह भट्टारकों के पंडित थे । इनका मुख्य स्थान जयपुर नगर के लश्कर के जैन मन्दिर में था । ये बह रहा करते थे तथा श्रद्धालु श्रावकों को धर्मोपदेश दिया करते थे। दीवान बालचन्द सुपुत्र दीवान जयचन्द छाया की इन पर विशेष भक्ति थी और उन्हीं के अनुरोध से इन्होंने संस्कृत भाषा में भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा विरचित व मानपुरा की हिन्दी गद्य में भाषा टीका लिखी थी। पंडित जी ने इसे संवत् १८७३ में समाप्त की थी । पुराण की भाषा पर दूद्वारी ( जयपुरी) भाषा का प्रभाव है । मन्थ प्रशस्ति के अनुसार पुराण की भाषा का संशोधन वस्तुपाल छाबडा ने किया था।