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सृष्टि होगी, आधुनिक युग में यदि स्थाद्वाद शैली के प्रकाश में भिन्न-भिन्न संप्रदाय वाले प्रगति करें तो बहुत कुछ विरोध का परिहार हो सकता है।
इन सारी बातों का हमारा कहने का एक ही अभिप्राय है कि जैन धर्म में एकान्तवाद को कोई भी स्थान नहीं है। इसलिए अध्ययन कार को यह सोचना नाशिक आचार्य ने किस ग्रन्थ में किस अपेक्षा से किस के लिए क्या कब क्यूँ किसलिए कहा। अगर यह व्यवस्था समझ में आ जाए तो विषमवाद को कोई स्थान नहीं रहता है। क्योंकि द्वादशांग में कोई भी विषय अछूता नहीं है। जिसका निरूपण न किया गया हो चौदह विद्या बहत्तर कला असि मसि आदि छः कर्म यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र आयुर्वेद न्याय सिद्धान्त के साथ-साथ दण्ड (प्रायश्चित्त) ग्रन्थों की भी रचना मोक्षमार्ग को अनुशासित चलाने के लिए आचार्य भगवन्तों ने की है हमारे यहाँ श्रुतज्ञान का विभाजन चार अनुयोग रूप में हुआ जिसमें प्रथमानुयोग और चरणानुयोग इन दो अनुयोगों में पुण्य-पाप और आचरण ( चारित्र) का विवेचन किया है और जहाँ आचार्यों ने पुण्य और पाप का फल दिखाने के लिए महापुरुषों का जीवन चरित्र लिखा वहीं पर उन्होंने आगे पुण्य-पाप परिणामों का विवेचन किया और उन्होंने ही श्रावक और श्रमण (साधु) की दिन चर्या आवश्यक कर्म आदि का भी उल्लेख किया। उन्होने बताया कि श्रावक और श्रमण का आचरण मोक्ष मार्ग के लिए कैसा होना चाहिए और उन्हें उस मार्ग पर चलने के लिए किन-किन व्यवस्थाओं (क्रियाओं) को अपनाना चाहिए ? और अगर उस व्यक्ति ने आगम और आचार्य की आज्ञानुसार उन क्रियाओं को पालन करने का संकल्प किया है अपना पालन कर रहा है और उसमें कहीं दोष आदि लग जाते हैं तो उनका परिहार वह व्रतों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त ग्रन्थों का भी निर्माण किया है। वैसे श्रमण के बारह तपों में छः अंतरंग तप में पहला प्रायश्चित्त तप ही है जिसे उसे पालन करना चाहिए। जैसा कि आचार्य ने लिखा है उन्होंने छः नाम इस तरह से गिनाए हैं -
प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्य स्वाध्याय व्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् || २० ||
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उमा स्वामी आचार्य - तत्वार्थ सूत्र अ. ६ सूत्र २०
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प्रायश्चित्त विधान-६