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________________ AAAAA PuppeappywookatibanmoovovawwwwwwwwwwwwwwINICANNOINDAISAnnanawwwromine-----... .:.:............... :: श्रावकों को प्रायश्चित्त होता है और उसका आधा जघन्य श्रावकों को प्रायश्चित्त होता है। विशेष प्रायश्चित्त इस प्रकार है ऋषियों के प्रायश्चित्त का उत्तम श्रावक के दो भाग प्रायश्चित्त होता है। ब्रह्मचारियों को ऋषि के प्रायश्चित्त का तीन भाग देना चाहिए। ऋषी के प्रायश्चित्त का चतुर्थ भाग श्रावक को देना चाहिए। महापुरुषों का महान कथन होता है। ज्ञानी पुरुषों की बात को ज्ञानी ही जान सकता है। मुनि कुंजर आचार्य आदिसागरजी अंकलीकर की यह कृति कितनी उपयोग है इस बात को ज्ञानी ही जान सकता है। पूर्वानुपूर्वी, पाश्च्यात्यानु पूर्वी रुप से ज्ञान होता है। ऋषि के प्रायश्चित्त से आगे बढ़ायेंगे तो अर्घार्ध और श्रावक के प्रायश्चित्त से आगे बढ़ायेंगे तो दूना-दूना आदि के क्रम से प्रायश्चित्त का निरुपण किया गया है। प्रस्तुत की ए ET होने हैं ये परोपकारी होते हैं। अत: इस ग्रन्थ को सत्र रूप कहा तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है। ___ जैन समाज में प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होने की प्रथा प्राय: दिन पर दिन मंद होती जाती है। लोग अपनी हठ धर्मी के आवेश में न्याय-अन्याय सबको न्याय का रूप देकर करणीय समझने में ही चातुरी समझते हैं । इस ऐसे ग्रन्थ की जिसमें शुद्ध होने की पद्धति का वर्णन है। प्रकाशित होने की बहुत बड़ी आवश्यकता थी। शास्त्र भंडारों में भी इस विषय का कोई हिंदी भाषामय ग्रन्थ अवलोकन करने में प्रायः नहीं आता था। इसलिए धर्मवृद्धि और व्यक्ति दोषमुक्त होकर निर्विकल्पता को प्राप्त हो इसी उद्देश्य से इस ग्रंथ की महत्ता समझ में आ जाती है। __प्रति समय लगने वाले अंतरंग व बाह्य दोषों की निवृत्ति करके अंतर्शोधन करने के लिए किया गया पश्चाताप वा दंड के रूप में उपवास आदि का ग्रहण प्रायश्चित्त कहलाता है, जो अनेक प्रकार का होता है। बाह्य दोषों का प्रायश्चित्त मात्र पश्चाताप से हो जाता है। पर अंतरंग दोषों का प्रायश्चित्त गुरु के समक्ष सरल मन से, आलोचना पूर्वक दण्ड को स्वीकार किये बिना नहीं हो सकता है। परन्तु इस प्रकार के प्रायश्चित्त अर्थात् दण्ड शास्त्र में अत्यन्त निपुण व कुशल आचार्य ही शिष्य की शक्ति व योग्यता को देख कर देते हैं अन्य नहीं। : : ESHASAMRA NE प्रायश्चित विधान - ६२
SR No.090385
Book TitlePrayaschitt Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
PublisherAadisagar Aakanlinkar Vidyalaya
Publication Year
Total Pages140
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size3 MB
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