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________________ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धि पूर्वक व्याख्यान करने में या पढ़ने में प्रवृत्ति करनी चाहिए । काल, अग्नि, भस्म, मृतिका, गोबर, जल, ज्ञान और निर्विचिकित्सा के भेद से आठ प्रकार की लौकिक शुद्धि होती है। और लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, ज्ञान, उज्झन वाक्य, तप और ध्यान इस प्रकार दम अनगार भावना सूत्र है और इनके प्रत्येक में अन्त भेद भी अनेक है। लिंगवदं चसुद्धी वसदि विहारं च भिकूवलाणं च। उजझन सुद्धी य पुणो वक्कं च तवं तथा ज्झाणं॥ निर्ग्रन्थरूपता शरीर के सब संस्कारों का अभाव अर्थात् स्नान नहीं करना, उबटन नहीं लगाना, पूर्ण नग्नता धारण करना, केशलोंच करना, हाथ में पिच्छिका ग्रहण करना, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप धारण करना यह लिंग शुद्धि है। लिंग के अनुरूप आचरण करना यह लिंग शुद्धि शब्द का अर्थ है । व्रतों को निरतिचार पालना व्रत शुद्धि है। स्त्री, पशु, नपुंसक रहित और परम वैराग्य को कारण ऐसे भूप्रदेश को वसति कहते हैं । अनियत वास नियत स्थान में नहीं रहना रत्नत्रय निर्मल करने के लिए सर्व देशों में विहरना विहार शुद्धि है। चतुविधाहार-अन्न, पान, खाध और लेह्य ऐसे चार प्रकार के आहारों की शुद्धि अर्थात् उत्पादनादिक दोष रहित आहार ग्रहण करना भिक्षा शुद्धि है। वस्तु का जैसा स्वरूप है वैसा संशयादिक दोषों से रहित जानना अर्थात् मत्यादिक ज्ञान को ज्ञान शुद्धि कहते हैं। शरीरादि पर ममत्व नहीं करना उज्झन शुद्धि है। स्त्री कथा, भोजन कथा, राजकथा, राष्ट्रकथा इत्यादि विकथा रहित भाषण करना वाक्य शुद्धि है । पूर्व सिंचित कर्म मल का नाश करने में समर्थ ऐसा उपवासादिक का आचरण करना तप शुद्धि है। तथा आर्त सैद्र ध्यानों को छोड़कर धर्म शुक्ल ध्यान से मन को एकाग्र करना ध्यान शुद्धि है। यह धन, जीवन, यौवन, कुटुम्बी लोग तथा और भी यह समस्त संसार बिजली की चमक के समान क्षण भंगुर है यही समझ कर और इस जगत रूपी शत्रु को मार कर जो आत्माओं को जानने वाले धीर वीर पुरुष प्रसन्न होकर उस प्रायश्चित्त विधान - ४१
SR No.090385
Book TitlePrayaschitt Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
PublisherAadisagar Aakanlinkar Vidyalaya
Publication Year
Total Pages140
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size3 MB
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