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दोषों को निवेदन करता है उसको चौथा बादर नामका दोष लगता है। जो अज्ञानी मुनि अपने अपयश के भय से अथवा कठिन तपश्चरण के भय से अथवा देखो इसके कैसे शुद्ध भाव हैं जो सूक्ष्म दोषों को भी अच्छी तरह प्रगट कर देता है। इस प्रकार के अपने गुणों के प्रगट होने की इच्छा से सैंकड़ों बड़े-बड़े स्थूल दोषों को तो छिपा लेता है तथा मायाचारी से आचार्य के सामने महाव्रतादिकों के सूक्ष्म दोषों को निवेदन कर देता है उसको पाँचवा सूक्ष्म नामका दोष लगता है। जो शिष्य लोभ फैलाने वाली अपनी अपकीर्ति के भय से अपने दोषों को दूर करने के लिए सुश्रूषा करके गुरु से पूछता है कि हे स्वामिन्! इस प्रकार अतिचार लगने पर कैसा प्रायश्चित होना चाहिए इस प्रकार किसी भी उपाय से पूछ कर वह जो प्रायश्चित्त लेता है वह अनेक दोषों को उत्पन्न करने वाला छन् नामका दोष लगता है। जिस समय पाक्षिक आलोचना हो रही हो अथवा वार्षिक आलोचना हो रही है अथवा किसी शुभ काम के लिए महात्माओं का समुदाय इकट्टा हुआ हो, तथा सब इकडे मिल कर अपनी-अपनी आलोचना कर रहे हो और उन सबके शब्द ऊंचे स्वर से निकल रहे हो उस समय अपने दोष कहना जिससे किसी को मालूम न हो सके उसको शब्दाकूलित नामका दोष लगता है। आचार्य ने किसी शिष्य को प्रायश्चित्त दिया हो और फिर वह यह शंका करे कि आचार्य
जो यह प्रायश्चित्त दिया है वह प्रायश्चित्त ग्रंथों के अनुसार ठीक है या नहीं तथा ऐसी शंका कर जो दूसरे किसी आचार्य से पूछता है उस समय उस प्रायश्चित्त लेने वाले के बहुजन नामका दोष लगता है। जो मुनि जिनागम को न मानने वाले अपने ही समान किसी मुनि के समीप जाकर अपने बड़े-बड़े दोषों की आलोचना करता है आचार्य से आलोचना नहीं करता उसके अव्यक्त नामका दोष लगता है। जो मुनि यह समझकर कि मेरे व्रतों में जो अतिचार लगा है वह ठीक वैसा ही है जैसा कि अमुक मुनि के व्रतों में अतिचार लगा है। इसलिए आचार्य ने ओ प्रायश्चित्त इसको दिया है वहीं प्रायश्चित्त मुझे ले लेना चाहिए। वही समझकर जो बिना आलोचना के तपश्चरण के द्वारा अपने व्रतों को शुद्ध करता है उसके अन्तिम वत्सेवित नामका दोष लगता है।
प्रायश्चित विधान - ३४