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पुच्छ मुछिदिति गायव
गामाई ॥ ३६३ ॥
- मूलाचार गाथा / ३६१, ३६३
व्रत में लगे हुए दोषों को प्राप्त हुए यति जिससे पूर्व में किए पापों से निर्दोष हो जाए वह प्रायश्चित तप है। पुराने कर्मों का नाम, क्षेपण, निर्जरा, शोधन, धावन, पुच्छन ( निराकरण) उत्क्षेपण, छेदन (द्वैधीकरण) ये सब प्रायश्चित्त के नाम हैं। इनकी पालना करने का अधिकार आचार्य को ही हैं। वे आचार्य अपने शिष्यों को प्रायश्चित्त देकर उनके व्रतों का शुद्धिकरण करते हैं और आगम में यह भी कहा है कि प्रायश्चित्त शास्त्र को जाने बिना प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए।
जैसा कि कहा है
मोत्तूण रागदो से ववहारं पट्टवेइ सो तस्स । ववहार करण कुसलो जिणवयण विसारदो धीरो ॥ ४५१ ॥ ववहार मयणं तो ववहरणिज्जं च ववहरंतो खु । उस्सीयदि भव पंके अयर्स कम्मं च आदियदि ।। ४५२ ।। जहण करेदि तिगिच्छं वाधिस्स तिरिच्छओ अणिम्मादो । ववहार मयणतो ण सोधिकामो विसुज्झेइ ।। ४५३ ॥
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भगवती आराधना मूल / मू. / गा. ४५१-४५३/६७८
जिन प्रणीत आगम में निपुण, धैर्यवान् प्रायश्चित्त शास्त्र के ज्ञाता ऐसे आचार्य राग-द्वेष भावना छोड़कर मध्यस्थ भाव धारण कर मुनि को प्रायश्चित्त देते हैं। ग्रन्थ से, अर्थ से और कर्म से प्रायश्चित्त का स्वरूप जिस को मालूम नहीं है वह मुनि यदि नव प्रकार का प्रायश्चित्त देने लगेगा तो वह संसार के कीचड़ में फंसेगा और जगत् में उसकी अकीर्ति फैलेगी। जैसे- अज्ञ वैद्य रोग का स्वरूप न जानने के कारण रोग की चिकित्सा नहीं कर सकता। वैसे ही जो आचार्य प्रायश्चित्त ग्रन्थ के जानकार नहीं है वे रत्नत्रय को निर्मल करने की इच्छा रखते हुए भी निर्मल नहीं कर सकते ।
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प्रायश्चित विधान ११
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