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हं अंकलिकरस्स पुरए परिवासिणोहि । देसस्स मूसण कुलस्स सुसिण्णिहिम्मि॥ दिक्खाइ जाइ अणगार गुणप्पियो वि।
सूरिंपदे परिगओ चड़संघ सीलो॥३॥ मैं आचार्य आदिसागर अंकलीकर अंकली नगर का रहने वाला देशभूषण कुलभूषण के सुसानिध्य में दीक्षित अरगार गुणों को धारण किया। और चतुर्विध संघ ने आचार्य पद से सुशोभित किया।
रच्चेमिदिव्व जिणदेसण सार रूवं। उब्योहणं जिणरहस्स वयणमियोवि॥ कल्लाण धम्म सिवमग्ण सुगंध-गारं।
भव्वाण णंद दग सुसुत्तसु अप्पभावं ॥ ४ ॥ जिनेन्द्र देव की देशना का सार भत उदबोधन जिन रहस्य पूर्ण वचनामृत कल्याणकारी धर्म मोक्षमार्ग को भव्यों के लिए उत्तम सूत्ररूप आत्म भाव से रचना की है।
वत्तो विहिग्गुण गुणाणु जुयं च सुतं । पायच्चियं लिहमिगंध सुगंथ णासं ।।
जेसिंग खेत्त माह रह सुसांगलीए।
गामो सुभावण आइरिय झाण जुत्तो ॥५॥ उसकी विधि गुण को गुणों से परिपूर्ण प्रायश्चित्त सूत्रों को लिखा हूं। जैसिंगपुर नगर सांगली ग्राम में उत्तम भावों सहित मुनीश्वर मुझ आचार्य ने ध्यान पूर्वक लिखा हूँ।
उण्णीस सत्तर इगे सुय जेड पंचे। णिम्मेमि गंध गुण णंदण सार रूवं ॥
हं अंकलीयर आइरिय आदिसिंधु । कल्लाण हेउ सय लाभ इणं लिहेमि ॥ ६॥
प्रायश्चित विधान - १२१