SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्परामासा xxxxxxxxxxxxx यथा विधि पूजा करता हूं, स्मरण करता हूं, तथा पंच परमेष्ठी वाचक मंत्रराज का स्थिर चित्त से अप भी करता है। निरंतर आदर से उन्हीं का ध्यान कर अपने को पावन करता हूँ ॥१०७॥ मणो मम उदाजिणं मुणि वर्ण सत्तच्ची । तवेज हि गुणं पह पवयणे हि वाणी। वधू कर जुगंजलिं सुभवणे हि मग्गी। विसुद्धि एव भव संभव भवे वि संपज्जए॥ १०८ ॥ मनोमममुदा जिनान्मुनि जनान सदार्चि। तपेत्तदीय गुणावमने प्रवचने च वाचततां ॥ वपुकार सुगांजलिं चल रमेल शार्णेनमेल : त्रिशुद्धिरेवमेव-संभव भवेऽपि संपद्यतां ॥ १०८ ॥.. आचार्य आदिसागर जी अंकलीकर, इस ग्रन्थ को लिखने का फल बतलाते हैं। पंच परमेष्ठी की भक्ति से आत्म शुद्धि और पुष्ट भक्ति का वरदान प्रभु से चाहते हैं ॥ १०८ ॥ ग्रंथकार की अंतिम भावना आचार्य परमेष्ठी श्री आदिसागर जी अंकलीकर गुरुदेव लिखते हैं कि मेरा मन श्री अहंत-जिन भगवान और जिन गुरुओं को उत्तम गुण स्मरण में लीन रहे। उन्हीं की भाव पूजा में संलग्न हो और उन्हीं के गुरु सागर का वर्णन वचन प्रणाली - धर्मोपदेशना में प्रवृत्त हो । अर्थात् आर्ष परंपरा पालन में ही मन-वचन का प्रयोग होता रहे - मनगढंत न हो। तथा शरीर से भी कर युगल से अंजुलि बनाकर मस्तक पर रखकर - कमलाकर करयुगल जोड़ कर शिर पर रश मस्तक झुकाकर मन, वचन, काय की शुद्धि पूर्वक निरंतर उन्हीं परमगुरु पंच परमेष्ठियों की भक्ति करता रहूँ। इस ग्रंथ रचना का फल यही चाहता हूँ कि पंच परमेष्ठी की भक्ति से मेरी आत्म शुद्धि हो और भक्ति पुष्ट बने।।१०८ ॥ प्रायश्चित्त विधान - ११९
SR No.090385
Book TitlePrayaschitt Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAadisagar Aankalikar, Vishnukumar Chaudhari
PublisherAadisagar Aakanlinkar Vidyalaya
Publication Year
Total Pages140
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Vidhi
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy