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उपEAKHABARTAMARALLELI ____ अनादिरूढि से और योग से भी निरुक्तयर्थ सभा आचार्य शब्द की व्युत्पत्ति की जाती है कि जो संयमी अन्य संयमियों से पाँच प्रकार के आचारों का आचरण्य कराता है वह आचार्य कहलाता है ।। ६४५|| अथवा जो व्रत के खण्डित होने पर फिर से प्रायश्चित्त लेकर उस व्रत में स्थिर होने की इच्छा करने वाले साधु को अखण्डित व्रत के समान व्रतों के आदेश दान के द्वारा प्रायश्चित्त को देता है वह आचार्य कहलाता है। और भी कहा है
आचारवान् श्रुताधारः प्रायश्चित्तासना दिदः आयापायकथी दोषाभाषकोऽश्रावकोऽपि च ॥१॥ सन्तोषकारी साधूनां निर्यापक इमेऽष्ट च । दिगम्बरोऽप्यनुद्दिष्टभंजी शव्याशनीति च ॥ २ ॥ आरोगभुक् क्रियायुक्तो व्रतवान्, ज्येष्ठसद्गुणः । प्रतिक्रमी च षण्मासयोगी च तद्विनिषद्यकः ॥ ३॥
- आ. कुन्दकुन्द बोध पाहुड़ टीका आचारवान् श्रुताधार, प्रायश्चित, आसनादिदः आयापायकथी, दोषभाषक अश्रावक, सन्तोषकारी निर्यापक ये आठ गुण तथा अनुद्दिष्ट भोजी, शय्यासार
और आरोगभुक क्रिया युक्त व्रतवान ज्येष्ठ सदगुण, प्रतिक्रमी, षण्मासयोगी, दो निषधक, १२ तप तथा ६ आवश्यक यह ३६ गुण आचार्यों के हैं।
ऐसे उपरोक्त गुणों से सम्पन्न आचार्य भगवन्त ही प्रायश्चित्त के दाता कहलाते है उनके द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त ही मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करता है
और तभी पापों से मुक्ति होती है क्योंकि प्रायश्चित करना मन को निर्मल करना है। प्रायश्चित्त का लक्षण और निरुक्ति अर्थ ग्रन्थों में इस प्रकार पाया जाता है
प्रायः साधुलोका, प्रायस्थ यस्मिन्कर्मणि चित्तं तत्प्रायश्चित्तम् ।... अपराधो वा प्रायः, चितं शुद्धिः, प्रायस्य चित्तं प्रायश्चित्तम् अपराधविशुद्धि रित्यर्थः।
___- राजबार्तिक ९/२२/१/६२०/२८ का प्रमाणावत विधानसभा
प्रायश्चित्त विधाम - २
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