SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ u rmusu RoistanRRORRB0BAEREONARREARSHBHARAAMROINTRommayamINEERINT उस सिंहासन को अस्पृश करते हुए चार अंगुल अधर विराजे । इन्द्र ने. देव-देवियों सहित अष्टप्रकारी केवलज्ञान पूजा की । १००८ नामों से स्तुति कर धर्मोपदेश के लिए प्रार्थना की । गणधर वज्रनाभि को सम्बुद्ध कर दिव्य ध्वनि खिरना प्रारम्भ हयी । जीवादि सप्त तत्वों का उपदेश कर भव्य जीवों को संसार समुद्र से पार होने का मुक्ति मार्ग प्रदर्शन किया । हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म प्रोर परिग्रह यात्मा के शत्रु हैं, त्याग, संयम, शील, सदाचार आस्मा के मित्र हैं। प्रात्मा और शरीर दोनों विजाति हैं इनका मात्र संयोग सम्बन्ध है । जिस प्रकार घोंसले और पक्षी का संयोग है, अथवा अंडे और पक्षी का है, उसी प्रकार प्रात्मा का शरीर से सम्बन्ध है। शरीर के जीर्ण-शीर्ण होने या नाश होने से प्रात्मा का कोई भी अपाय या नाश नहीं होता। आत्मा अखण्ड असंख्यात प्रदेशी टकोत्कीर्ण ज्ञानधन स्वभावी है। यद्यपि पर्याय से विकार युक्त हुयी संसार में परिभ्रमण करती है, परन्तु शुद्ध स्वभाव में प्राकर पुन: अशुद्ध नहीं हो सकती । हे भव्यो ! जिस प्रकार दूध में घी, लकड़ी में प्राग, किट-कालिमा में सुवर्ण, पत्थर में हीरा पा रहता है, उसी प्रकार शरीर में आत्मा है उसे भी पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। पुरुषार्थ है त्याग और तप । इस प्रकार प्रभु ने चतुसिकाय देवों-देवियों, मनुष्यों तीर्यकचों से वेष्टित समवशरण में रतन्त्रय स्वरूप मोक्षमार्म का सदुपदेश दिया । इन्द्र द्वारा प्राथित प्रभ ने अंग, वंग कलिंग प्रादि देशों में बिहार कर आर्य क्षेत्र को मुक्ति और संसार का यथार्थ स्वरूप समझाया। पाप मुख्य शासन देव यक्षेश्वर और यक्षी वन शृखला या दुरि. तारी थी । श्रावकों में मुख्य श्रोता मित्रभाव था। समवशरण परिमार--- समवशरण का विस्तार १०॥ योजन प्रमाण था। अर्थात ४२ कोष प्रमाण । सामान्य केवली १६०००, पूर्वधारी २५०० शिक्षक या पाठक मुनि २३००५० थे, विपुलमती मनः पर्यय ज्ञानी १२६५०, विक्रियाऋद्धिधारी १६०००, अवधिज्ञानी ९८६०, वादियों की संख्य ११००० थी। इस प्रकार समस्त संख्या ३०१००० मुनि थे। समस्त गणधर १०३ थे। मुख्य गणिनी गायिका मेरुषेणा थी समस्त प्रार्यिकाओं का प्रमाए ३०३०६०० था, ३००००० (तीन लाख) श्रावक और
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy