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________________ wwwwww समान देदीप्यमान थे । अपने गुणों से सबको प्रसन्न करते हुए शोभा - और लक्ष्मी की परम वृद्धि की । राज्यभोग...... कुमार काल पूर्ण होते ही महाराज (पिता) ने राज्यभार उन्हें अर्पण किया । स्वयं वैराग्य से दीक्षा धारण कर आत्महित में अनुरक्त हुए । अभिनन्दन राजा अपनी प्रिय पत्नी एवं पुत्रादि के साथ निरासक्त भाव से प्रजा पालन करने लगे। इनके शासन में सब थानन्द से सुखी जीवन बिताते थे । जब मोक्ष लक्ष्मी भी अपने तीक्ष्ण कटाक्षों से इन्हें अनुरंजित करने को उद्यत थी तो फिर राज्यलक्ष्मी यदि अनुराग करे तो क्या आश्वर्य है । ये क्षायिक सम्यग्दष्टि, तीर्थकर पुण्य कर्म के नेता थे । आत्म स्वरूप सम्पत्ति इन्हें प्राप्त थी, फिर अन्य कौनसी सम्पत्ति रह गई थी ? अर्थात् कोई नहीं । वे कुमार अवस्था में धीर और मनोहर थे, राज्यावस्था में धीर एवं उद्धत और तप काल में धीर और शान्त थे । अन्त अवस्था में धीर और उदात्त थे । कीर्ति से अनेकों शास्त्र, वर्णाक्षरों से गीत भरे थे । लोगों की दृष्टि में प्रेम भरा था, गुरणों की विवेचना में उनका स्मरण होता था । प्रोढता और योगिता के समस्त गुण उनके बाल्य जीवन में ही या चुके थे, तभी तो इन्द्र सेवक हो गया था । उनके बुद्धयादि सकल गुण स्पर्धा के साथ बढ रहे थे उन प्रभु ने संसार के सारभूत भोगों का उपभोग किया | ३६ || (साठे छत्तीस ) लाख पूर्व और । ५ पूर्वाङ्ग तक राज्य किया । वैराग्य उत्पत्ति किये शिशिर ऋतु अपने पूर्ण वैभव के साथ भूमण्डल को प्रावृत्त थे । गुलाबी जाडा सबको सुखद प्रतीत हो रहा था । यदा-कदा गगन में मेघ समूह श्रा जा रहे थे सुहानी वायु बह रही थी । एक समय माघ शुक्ला द्वादशी के दिन वे अपने सुरम्य सतखने महल की छत पर सुख से आसीन आकाश की शोभा देख रहे थे । सहसा उन्होंने श्राकाश में बादलों का नगर बना देखा और उसी क्षण वह विलीन भी हो गया । बस, इस इश्य से उनका प्रात्म बोध जाग्रत हो गया। वे संसार, शरीर, भोगों की क्षणभंगुरता का चिन्तवन कर आत्म कल्याण का उपाय दम I -----------
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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