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________________ यमराज कहते हैं । यह आयु रूपी "यम" अनन्तों बार जीव को मारता है, इस शरीर में रहकर इसी का नाश करता है । तो भी अज्ञानी प्राणी इसी शरीर में रहने की इच्छा करता है। नीरस विषयों को सरस मानकर सेवन करता है । इष्टानिष्ट बुद्धि कर संसार वृद्धि करता है । धिक्कार है इस उपद्रव को । श्रात्मा का समागम ही नित्य है, वही सुख है, अपना है, बाकी सब पर' है अनित्य है, दुःख ही दुःख है । इसकी इच्छा का त्याग ही सम्यग्ज्ञान रूपी लक्ष्मी को पाकर श्रात्म-स्वभाव में रत होता है । इस प्रकार तत्व चिन्तन कर और लोकान्तिक देवों के चले जाने पर श्री प्रभु ने अपने पुत्र को बुलाया और उसे वैश्यासम चंचल राज्य लक्ष्मी को सौंप दिया। श्रर्थात् पुत्र को राज्यभार दे स्वयं वन को जाने के लिए उद्यत हुए । बोला कल्याणक देवेन्द्र की भगवान के वैराग्य की सूचना मिलते देर नहीं लगी । बेतार का तार जा पहुँचा । बस क्या था, इन्द्रराज "सिद्धार्थं" नामा शिविका सजा कर ले आये । समस्त वैभव-परिवार के साथ श्रावस्थी के प्रांगण में श्रा पहुँचे । प्रभु का दीक्षाभिषेक कर वस्त्रालंकार से सुशोभित कर शिविका में प्रारूढ़ होने की प्रार्थना की। भगवान सहर्ष पालकी में विराजे । प्रथम सप्त उग भूमि गोवरी राजात्रों ने पुनः विद्याधरों ने और अनन्तर देवेन्द्र, देवों ने पालको उठायी । श्राकाश मार्ग से शीघ्र ही वे सहेतुक वन में जा पहुँचे । पहले से इन्द्र द्वारा स्वच्छ की हुयी शिला पर पूर्वाभिमुख विराज कर १००० राजाओं के साथ पञ्चमुष्ठि लौंच कर भव बन्धन छेदक दिगम्बरी दीक्षा मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा को अपराह्न काल में ज्येष्ठा नक्षत्र में सद्योजात दिगम्बर रूप धारण कर प्रभु ध्यानारूढ़ हुए। आपने शालवृक्ष जो ४८०० धनुष ऊँचा था के नीचे दीक्षा वारण की थी । एकाग्र मन से उत्पन्न ग्रात्म विशुद्धि से चतुर्थ मनः पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया। दो दिन का उपवास वार किया । देव देवियों में अत्यन्त समारोह से दीक्षा कल्याणक महोत्सव मनाया और अपने स्वामी इन्द्र के साथ स्वर्ग चले गये । प्रभु का प्रथम पारा दो दिन तक निश्चल ध्यान लीन रहे । पौषवदी ३ को आहार के लिये चर्या मार्ग से नातिमन्द गमन करते हुए प्रभु श्रावस्ती नगरी में 05 J
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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