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जल प्रपूरित हो गये। भावी सुख-शान्ति का मंगलमय सन्देश लिए दिशाएँ निर्मल हो गई । आज कार्तिक पूर्णिमा है, आकाश में पूर्ण चन्द्र का उदय हुआ और भू-मण्डल पर चन्द्रमा के योग में मृगसिर नक्षत्र के रहते भगवान का जन्म हुमा । भू-अम्बर नृत्य, संगीत एवं जयध्वनि से गुंज उठा। भगवान की शरीर दीप्ति सपाये हुए सुवरण के समान कञ्चनमय थी, उधर सुमेरु की जम्बूनद कान्ति, पाण्डुक शिला पर विराजमान भगवान की शरीर धुति से सुमेरु की कान्ति अनुपम हो गई । इन्द्र ने प्रादिप्रभु के समान ही इन्द्राणी, देव-देवियों सहित जन्माभिषेक किया, शची में वस्त्रालंकार धारण कराये तथा अनूठे वैभव से श्रावस्ती नगरी में आकर माता-पिता को बालक प्रभु सौंप दिया ।
इन्द्रद्वारा स्तुतिकरण एवं निल
जन्म कल्याणक के अन्त में इन्द्र बड़ी भक्ति विनय और श्रद्धा से नतशिर स्तवन करने लगा, "हे देव ! तीर्थङ्कर नामकर्म के उदय के बिना ही, केवल आपके जन्म लेने से त्रैलोक्यवर्ती समस्त जीवों को सुख मिला है, शान्ति प्राप्त हुयी है अत: पाप "संभवनाथ' हैं । हे संभवनाथ ! लक्षण और व्यञ्जनों से शोभित आपका शरीर कल्पवृक्ष की उपमा धारण करता है, प्राजानु लम्बी भुजाएँ शाखाओं के सदृश शोभ रही हैं। देवताओं के नेत्ररूपी भ्रमर प्रासक्त हो सुप्त हो रहे हैं। कपिलादि मतों का तिरस्कार कर जिस प्रकार स्थाद्वादवाणी का तेज सुशोभित होता है उसी प्रकार आपका तेज सबके तेज को तिरस्कृत कर दीपित हो रहा है। आप अपने जन्मजात नलिज्ञान, श्रतज्ञात और अवधिज्ञान से अगत का हित कर रहे हैं। हे देव, समस्त लोक आपकी गरिमा के समक्ष नतमस्तक हो रहा है । इस प्रकार नाना प्रकार गुणस्तवन कर इन्द्र ने प्रानन्द नाटक किया । भगवान के दांये अंगुष्ठ पर स्थित अश्व के चिह्न को देखकर भगवान का लाञ्छन "घोटक" (घोडा) निश्चित किया। इस प्रकार जन्म कल्याणक महोत्सव मना कर इन्द्र देवी. देवताओं के साथ अपने स्वर्गधाम को चला गया ।
माता-पिता के साथ समस्त श्रावस्ती के नर-नारियों ने भी प्रभु का जन्मोत्सव मनाया । राजा ने सबको अभयदान और किमिच्छक दान देकर संतुष्ट किया। भगवान अजितनाथ स्वामी के तीस लाख करोड़