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श्री सिद्ध अहंदभ्यो नमः
श्री १००८ आदिनाथ अनादि अनन्त होते हुए भी संसार परिवर्तनशील है । "ससरमां संसार:" जो परिणामित होता रहे वह संसार है। इसका अभिप्राय यह है कि अनन्त संसार में स्थित पदार्थों में सतल उत्पाद व्यय प्रौव्यात्मक स्थिति होती रहती है। क्योंकि सत् का यही लक्षण है। चूंकि संसार भी सत्रूप है अतः परिवर्तन अनिवार्य है । यह परिवर्तन ६ भागों में विभक्त है । परिवर्तन की धुरा काल-द्रव्य है इसके मुख्य और व्यवहार से दो भेद हैं काल के दो भेद हैं......१ -उत्सपिसी और २-अवसपिणी । प्रत्येक के ६-६ ... भेद हैं। इनका समय १०-१० कोडाकोड़ी सागर काल है । २० कोडाकोडी सागर का एक युग कहा जाता है । अक्सपिरगी का प्रथम भाग सुखमा-सूखमा ४ कोडाकोडी सागर को है. दूसरा सूखमा ३ कोडाकोडी सागर, सोसरा सुखमा-दुःखमा २ कोडाकोडी सागर, चौथा दुःखमा-सुखमा ४२ हजार वर्ष कम १ कोडाकोड़ी सागर, पांचवां दुःखमा प्रऔर छदा दुःखमा-दुःखमा प्रत्येक २१-२१ हजार वर्ष मात्र हैं। इस