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________________ किसी दिन सुनीन्द्र बर्द्धमान कौशाम्बी नगरी में बाहार के निमित आये। जिस दशा में जन्दना थी, वही उनका अवग्रह था । अस्तु, वे निस्पृही, वीतरागी मुनिराज उस चेटक की पुत्री चन्दना के सामने श्राये । वह भी भक्ति से उगाह्न करने की दौड़ी, कि चटचट, भत-झनाती बेडियाँ टूट गई, सिर पर घुंघराले काले केश सुशोभित हो गये, मालती माला से गला शौभित हो गया, वस्त्राभूषण सज गये । मिट्टी का पात्र सुवर्ण पात्र और कोदों का भात सुन्दर सुगंधित शाली का भात हो गया । उस बुद्धिमती ने विधिवत् श्राहार दान दिया । पञ्चाश्चर्य हुए । शील महात्म्य प्रकट हुआ । भाई बन्धुत्रों से मिलन हुआ । किन्तु उसने विरक्त हो आर्यिका माताजी के पास प्रजिका दीक्षा धारण कर ली । भगवान आहार कर पुनः वन में जा विराजे । इस प्रकार मौन पूर्वक १२ वर्ष तक अनेक तप करते व्यतीत हुए : छपस्य कास भगवान मुनीश्वर ने १२ वर्ष छद्मस्थ काल में अनेकों कनकावली, सिंह निष्क्रिडित आदि उपवास कर कर्म शत्रुओं को जर्जरित किया । प्रमत्त से श्रप्रमत्त दशा को प्राप्त कर सतत निज शुद्ध स्वरूप का चिन्तन किया । मनोत्पत्ति- किसी एक दिन बिहार करते हुए भगवान जृम्भिका गांव में ऋजुकूला नदी के समीप मनोहर उद्यान में पधारें। वहाँ सागोन वृक्ष के नीचे स्वच्छ शिला पर विराजमान हो शुक्लध्यान प्रारंभा उत्तरोत्तर बढती विशुद्धि से क्षपक श्रेणी आरोहण किया । वैशाख शुक्ला दशमीं के दिन हस्त नक्षत्र में संध्या समय उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। वही सागोन वृक्ष कल्प वृक्ष रूप परिणत हो गया। उसी समय इन्द्र, देव देवियाँ, नदी प्रवाह की भाँति सर-सर स्वर्गलोक से आ गये । ान कयक असंख्य देव देवियों के साथ इन्द्र ने भगवान अर्हन्त श्री बर्द्धमान• स्वामी की ज्ञान कल्याणक पूजा की । उत्सव किया । कुबेर को समय २५७
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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