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________________ इन्द्र, देव, देवांगनाएं, उग्रसेन, समुद्र विजय, कृष्ण प्रादि राजा, महाराजा सभी ने उन परम पितास्वरूप मुनीश्वर की परम भक्ति से पूजा की, स्तुति की और अपने अपने स्थान पर चले गये। पारणा----- तीन दिवस पूर्ण कर सज्जनोत्तम श्री नेमीश्वर गुरूदेव आहार के लिए चर्या मार्ग से लाये । द्वारावती में प्रविष्ट होते ही महाराज वरदत्त ने बड़े संभ्रम के साथ भक्ति श्रद्धा से पडगाहन किया। नवधा भक्ति पूर्वक निर्दोष, शुद्ध प्राशुक क्षीरान का प्राहार दिया । उनके घर पश्चास्चर्य हए । १२ करोड रत्न वर्ष, पुष्पवर्षा हुयो, शीतल मन्द सुगन्ध बहने लगी, दुदुभी बाजे आकाश में गूंज उठे, जय जय, अहोदान, धन्य पात्र, धन्य दाता आदि शब्द देवों द्वारा व्याप्त हुए। भुवर पुनः तपस्या लीन हो गये। इस प्रकार तपोनिष्ठ स्वामी ने प्रखण्ड मोन सहित ५३ दिन व्यतीत किये । पुनः तेला का नियम कर रेवतिक-गिरनार पर्वत (उर्जयन्तगिरि) पर आ विराजे । बांस के पक्ष के नीचे विराजे ध्यानमग्न प्रभु की आत्म ज्योति शरीर के रोमों से निकल सर्वत्र व्याप्त हो गई 1 केबलोत्पत्ति, ज्ञान कल्याणक ---- छन्नस्थ काल के ५६ दिन हो गये । अब पासौज शुक्ला प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल चित्रा नक्षत्र में लोकालोकः प्रकाशक, चराचरावभासी पूर्ण ज्ञान उत्पन्न हुआ। अहंत अवस्था प्राप्त हुई-सर्वज्ञ हुए । इन्द्रादि देवों ने प्राकर ज्ञान कल्याणक पूजा महोत्सव कार्य सम्पन्न किया । कवेर ने १।। योजन (६ कोश) विस्तार में गोलाकार समवशरण रचना कर जिनेश्वर स्वामी का दिव्यश्वनि द्वारा धर्मोपदेश कराया। भगवान ने ५६ दिन का मौन भंग कर भव्य जीवों को धर्मामृत पान कराया। षट् द्रव्य, नव पदार्थ आदि का विशद विवेचन किया। केवलोत्पति का समाचार पाकर कृतरण, वलभद्र, अपने-अपने परिवार सहित प्राये और अपने-अपने भवान्तर पूछे । इनका यक्ष स षह और यक्षी कूष्माण्डिनी देवी है। समवशरण आपके समवशरण में वरदत्त आदि ग्यारह (११) गणघर थे। ४०० श्रत केवली थे, ११८०० शिक्षक-उपाध्याय थे, १५०० अबधि २३८ ।
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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