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________________ पालकी लायां । प्रथम दीक्षाभिषेक कर वस्त्रालंकार पहिनाये और frfect में सवार किया । पुनः राजागरण लेकर चले । तदनन्तर देवगण गगन मार्ग से 'नीलवन' में ले गये। वैशाख कृष्णा १० मीं के दिन श्रवण नक्षत्र में संध्या के समय तेला के उपवास को प्रतिक्षा कर सिद्ध साक्षी में दीक्षा धारण की। स्वयं पञ्चमुष्ठी लौंच किया । इन्द्र ने केशों को मस्तक पर चढाया। रत्न पिटारे में रख क्षीर सागर में क्षेपण किया। श्री मुनिसुव्रत महा मुनिराज ध्यानाचल हो ग्रात्म चिन्तन करने लगे । पारणा -- पात्र दान का योग पुण्य से होता है और पुण्य का ही वर्द्धक है । तीर्थकर प्रभु को प्रथम पारणा कराना निश्चित दो तीन भव से मुक्त होने का निमित्त है। मुनीश्वर तीन दिन बाद आहार को निकले । चर्या मार्ग से राजगृही नगरी पहुँचे । जन्म से तीन ज्ञान घारी थे, दीक्षा लेते ही चौथा मनः पर्यय ज्ञान भी हो गया। इस प्रकार चार ज्ञान धारी मुनीश्वर को आते देख महाराज वृषभसेन ने बड़े उत्साह से पड़गाहन किया | नववाभक्ति से शुद्ध प्रासुक आहार दिया। उसके पुण्य विशेष और भक्ति विशेष से पञ्चाश्चर्य हुए निरंतराय ग्रहार कर प्रभु वन में, कर्मों के साथ युद्ध करने लगे । छग्रस्थ काल कठोर साधना रत उन मुनिराज ने ग्रखण्ड मौन से ११ महीने व्यतीत किये। .. केवलज्ञान उत्पति और केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव - ग्यारह मास की प्रखण्ड मौन साधना के बाद वैशाख कृष्णा नवमी के दिन श्रवण नक्षत्र में संध्या के समय उसी नील वन में चम्पक वृक्ष के तले लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। यह वृक्ष २४० धनुष ऊँचा था । उसी समय देव और इन्द्रों ने प्राकर केवलज्ञान कल्याणक पूजा महोत्सव किया। इन्द्र की प्राज्ञानुसार धनपति ने समवशरण रचना को । इसका विस्तार २||योजन अर्थात् १० कोस प्रमाण था । इसके मध्य गंधकुटी में स्थित हो १२ सभाओं से घिरे भगवान ने ११ माह का मौन विसर्जित [ २२३
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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