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जन्म कल्याएक
धीरे-धीरे अति आनन्द पूर्वक नव मास पूर्ण हुए। माता को किसी प्रकार भी गर्भजन्य प्रायास मालूम नहीं हुआ । अपितु लाघवसा प्रतीत हुई । वैशाख वदी दशमी के दिन श्रवण नक्षत्र में, मकर राशि के रहते. प्रातःकाल संतोष पूर्वक बिना किसी बाधा के अपूर्व कान्तियुत पुत्र रत्न को उत्पन्न किया ।
जन्माभिषेक -
जन्म होते ही तीनों लोक क्षुभित हो गये । पल भर नारकियों ने भी सुखानुभव किया | सिंह, घंटा, शंख, भेरी नाद से भगवान का जन्म अवगत कर चारों प्रकार के देव, देवेन्द्र सपरिवार प्राये | सौधर्मेन्द्र ऐरावत हाथी सजा कर लाया। उसकी शचि महादेवी प्रसूतिगृह से मायामयी बालक सुलाकर बालक जिन को लायीं । इन्द्र ने १ हजार नेत्र बनाकर उन्हें निहारा । सतृष्ण नेत्रों से पाण्डुक शिला पर ले जाकर हाथों हाथ लाये क्षीर सागर के जल से भरे १००८ कलशों से अभिषेक किया । क्रमशः देवियों इन्द्राणी यादि ने भी सद्योजात बालक का स्नपन, मण्डन, मज्जन कर भारती उतारी तिलक लगाया । इन्द्र ने मुनिसुव्रत नाम घोषित किया । सुसज्जित बाल कुमार को लाकर राजा सुमित्र और रानी सोमा की गोद में स्थापित किया । पुत्र जन्म ही संसार में सुख का कारण है फिर तीर्थङ्कर जैसा पुत्र वह भी दीर्घकाल प्रतीक्षा के बाद ढलती वय में प्राप्त हो तो कितना हर्ष होगा ? दोनों दम्पति आनन्द विभोर हो गये । इन्द्र ने भी समयानुसार " श्रानन्द" नाटक किया। देवों को बालरूप धर बालक प्रभु के साथ रमरण करने की आज्ञा दी और अपने स्थान को चला गया । देव देवियों सभी दासदासी के समान बालक और माँ बाप की सेवा भक्ति में तत्पर हुए । इनका चिह्न का है ।
श्री मल्लिनाथ तीर्थङ्कर के ५४ लाख वर्ष बीतने पर इनका जन्म हुआ । इनकी आयु भी इसी में गर्भित है । इनकी आयु ३० हजार वर्ष की थी । २० धनुष ( ८० हाथ ) का ऊँचा शरीर था. शरीर की कान्ति मयूर के कण्ठ समान नीलवर्ण की थी । रूप लावण्य, बुद्धि अप्रतिम थी ।
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