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गाणणमानणणार
छपत्यकास
कठिन तप: साधना, नाना प्रकार योग साधना करते हुए उन्होंने १६ वर्ष व्यतीत किये । पुन: वे विहार करते हुए उसी सहेतुक दीक्षा वन में पधारे । वहाँ ध्यानारूढ हो गये। केबलोत्पत्ति और केवलज्ञान कल्याणक --
तीन दिन का उपवास (तेला) का नियम लेकर तिलक वृक्ष के नीचे वे भगवान एकाग्र हो तीन करणों के द्वारा क्रमशः क्षपक श्रेणी में प्रारूढ़ हुए। ध्यानानल से मोहनीय कर्म को ध्वस्त कर द्वितीय शुक्लध्यान से शेष तीनों धातिया कर्मों का सर्वथा नाश कर परम शुद्ध दशा प्राप्त की। शरीर भी परम-औदारिक रूप हो गया । कदली वृक्ष की नवीन कोंपल की भांति रंग हो गया । सभी केवलियों का यही रंग हो जाता है । चैत्र शुक्ला तृतीया के दिन कृतिका नक्षत्र में संध्या के समय केवलज्ञान उत्पन्न हया । उसी समय देवेन्द्र ने देव देवियों सहित आ केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव पूजा की। कुवेर ने समवशरण रचा । समवशरण--
यह गोलाकार ४ योजन विस्तार में व्याप्त कर रचना की। ५ भूमि के मध्य गंध कुटी रची। तीन कटनियों के ऊपर कञ्चन का सिंहासन रत्न जड़ित रचा । उस पर अधर भगवान विराजे । १६ कोस का सभा मण्डप १२ सभामों से वेष्टित हमा।
उनके समवशरण में ४००० केवली, ८०० पूर्वधारी, ४१८०० शिक्षक-पाठक, ४००० मन: पर्ययज्ञानी, ६००० विक्रियाद्धिधारी, ३००० अवधिज्ञानी एवं २००० बादी थे। स्वयंभू को प्रादि लेकर ३५ गराधर हए । इस प्रकार सर्व ६०००० मुनिराज थे । भाव श्री (भाविता) आदि ६०३५० प्रायिकाएँ थी 1 दत्त नाम के प्रमुख श्रोता को लेकर १ लाख श्रावक और ३ लाख श्राविकाएं थीं 1 गंधर्वं यक्ष और जया (गांधारी) यक्षी थी। चारों काल (संध्याओं) में श्री प्रभु की दिव्यध्वनि खिरती थी। सभी धर्मोपदेश श्रवण कर अनेक ब्रत धारण कर मोक्षमार्ग पर प्रारूढ़ हो पात्म साधना करने लगे। समस्त तपकाल २३४५० वर्ष था । २०० ]